Book Title: Viro Santo aur Bhakto ki Bhumi Mevad
Author(s): Hiramuni
Publisher: Z_Ambalalji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012038.pdf

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Page 3
________________ १०२ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालाल जी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ ०००००००००००० ०००००००००००० HERE E NABE घटना चित्तौड़ के प्रथम जौहर के नाम से पुकारा जाता है। पद्मिनी का यह जौहर हमारे भारतीय नारी समाज की उच्चचारित्रिक विशेषता का जीता-जागता उदाहरण है। महाराणा सांगा-मेवाड़ के इतिहास में महाराणा सांगा उर्फ महाराणा संग्रामसिंह का नाम भी बहुत ही आदर और सम्मान के साथ लिया जाता है। मेवाड़ की रक्षार्थ इन्होंने अपने जीवन का सम्पूर्ण समय युद्धभूमि में बिताया और १८ युद्ध लड़े । इन युद्धों में इनकी एक आँख चली गई और एक हाथ कट गया। कहते हैं-उनके शरीर पर ८० घाव पड़ गये । अन्तिम युद्ध में बाबर से लड़ते हुए सांगा घायल होकर गिर पड़े और मूच्छित हो गये, तब उन्हें सरदार उठाकर ले आये। जब होश आया तो वे लड़ने को उद्यत हो उठे, सरदारों, परिवार के लोगों ने उन्हें बहुत समझाया किन्तु वे अपनी हठ नहीं छोड़ते, अन्त में उन्हें बुरी गति से बचाने के लिए ही परिवार वालों ने उन्हें जहर दे दिया। महाराणा सांगा की देशभक्ति और धर्म-परायणता इतिहास की उज्ज्वल घटना के रूप में अजर- . अमर हो गई। दूसरा जौहर-मेवाड़ में चित्तौड़ का दूसरा जौहर भी बहुत प्रसिद्ध है। महाराणा विक्रमसिंह चित्तौड़ का शासक था । तब गुजरात के बादशाह बहादुरशाह ने मेवाड़ पर चढ़ाई कर दी। राजमाता हाड़ारानी और राजमाता कर्मवती ने अपनी रक्षार्थ दिल्ली के सम्राट हुमायु से सहायता चाही जो उस समय मालवा की ओर शेरशाह से उलझा हुआ था। सहायता देना स्वीकार भी कर लिया किन्तु हुमायुं ठीक समय चित्तौड़ नहीं पहुँच सका फलतः राजपूती-सेना के सभी विजय के प्रयत्न निष्फल हो गये। तब हाड़ी रानी और कर्मवती ने कई राजपूत स्त्रियों सहित अग्नि-प्रवेश किया। मेवाड़ के इतिहास में यह दूसरा जौहर कहा गया । महाराणा प्रताप-देश-विदेश में प्रताप के नाम से ही मेवाड़ को जाना-माना जाता है। धर्म रक्षा, देशभक्ति और स्वतन्त्रता की रक्षार्थ उन्होंने अपने जीवन की आहुति देदी। विक्रम संवत् १५६७ की ज्येष्ठ शुक्ला तृतीया को महाराणा प्रताप का जन्म हुआ । महाराणा उदयसिंह की मृत्यु के बाद वे ३२ वर्ष की आयु में मेबाड़ के शासक बने । उस समय दिल्ली का शासक अकबर था। अकबर के सामने राजस्थान के सभी नरेशों ने सिर झुका लिया । मेवाड की स्थिति भी अच्छी नहीं थी। यद्यपि मेवाड़ ने दिल्ली की अधीनता स्वीकार नहीं की किन्तु मेवाड़ का अधिकांश भू-भाग अकबर के अधिकार में था। महाराणा प्रताप ने राज्य गद्दी पर आसीन होते ही मेवाड़ को पूर्ण रूप से स्वतन्त्र कराने की प्रतिज्ञा की। और इस प्रयास में उन्हें बहुत कष्ट उठाना पड़ा, राजमहल क्या उन्हें जंगल-जंगल भटकना पड़ा, घास-वृक्ष के बिछौने पर सोना पड़ा और फल-फूद-कन्द आदि खाकर गुजारा करना पड़ा, किन्तु वे स्वतन्त्रता के लिए झूझते रहे। अकबर ने जयपुर के राजा मानसिंह को प्रताप के पास उन्हें समझाने को भेजा। इतिहास प्रसिद्ध उदय सागर की पाल पर प्रताप उन्हें मिले, किन्तु प्रताप ने अधीनता स्वीकार नहीं की, वरन् उन्होंने मानसिंह के साथ बैठकर भोजन करना भी अपना अपमान समझा! मानसिंह दिल्ली गया और वहाँ से शाही फौज को लेकर उसने विक्रम संवत १६३२ की ज्येष्ठ शुक्ला द्वितीया को मेवाड़ पर आक्रमण कर दिया। यह युद्ध हल्दीघाटी के युद्ध के नाम से प्रसिद्ध हुआ। हल्दीघाटी उदयपुर के पास नाथद्वारा के समीप स्थित है जो आज युद्ध के स्मारक के रूप में शोभित है। यद्यपि हल्दीघाटी के युद्ध में मेवाड़ की हार हुई। अनेक राजपूत सैनिक योद्धा, सरदार मारे गये । प्रताप का स्वामीभक्त घोड़ा चेटक भी मारा गया और मन्नाजी जैसे स्वामीभक्त सरदार ने अपने स्वामी के प्राणों की रक्षा के लिये अपने प्राणों की आहुति भी देदी। किन्तु महाराणा प्रताप ने अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की। युद्ध में हार जाने के बाद महाराणा के पास न सेना रही न धन ! एक बार तो वे मेवाड़ छोड़कर भी जाने लगे किन्तु धनकुबेर जैन श्रावक भामाशाह ने उन्हें रोक कर अपनी सम्पूर्ण धन और सम्पत्ति को महाराणा की सेवा में भेंट कर दी। महाराणा प्रताप ने इस धन से पुनः सेना एकत्रित की और कई लड़ाइयाँ लड़ी और कुछ अन्य किलों को छोड़कर सारे मेवाड़ प्रान्त को उन्होंने स्वतन्त्र कर लिया। इसी बीच वे बीमार हो गये। मरते समय मेवाड़ के सामन्त सरदारों ने पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त करने की प्रतिज्ञा की तभी उनके प्राण निकल सके ! महाराणा प्रताप के सन्दर्भ में यह बात उल्लेखनीय है कि महाराणा प्रताप द्वारा चलाये गये स्वतन्त्रता अभियान में यहां के मूल आदिवासी भील जाति ने इनका बहुत साथ दिया। आज भी महाराणा का वंश इस भील जाति का उपकार मानता है । ORMER Jain Education International Forabineteeneo AvaIVRATRIOSINME

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