Book Title: Viro Santo aur Bhakto ki Bhumi Mevad Author(s): Hiramuni Publisher: Z_Ambalalji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012038.pdf View full book textPage 2
________________ बीरों, सन्तों और भक्तों की भूमि मेवाड़ एक परिचय | १०१ चाँदी, जस्ता, सोप स्टोन, पन्ना, रॉक फास्फेट आदि अनेक बहुमूल्य खनिज पदार्थ की खाने हैं । अन्वेषक वैज्ञानिकों का मत है कि नाथद्वारा - हल्दीघाटी से अजमेर के समीप तारागढ़ तक पन्ने की खान की सम्भावना है। भीलवाड़ा माईका खनिज द्रव्य के लिए प्रसिद्ध है । इन खनिज द्रव्यों के कारण बहुत से लोग खानों में कार्य कर अपना जीवन यापन करते हैं । उदयपुर, चित्तौड़, भीलवाड़ा इन तीनों ही जिलों में इन खनिज द्रव्यों के कारण कई छोटे-मोटे कारखाने, फैक्ट्रियाँ शुरू हो गई हैं जिसमें बहुत से लोग कार्यरत हैं । सिंचाई के लिए यहाँ कुओं और नहरों के साधन हैं । इतिहासकारों की मान्यता है कि आज से ३०० वर्ष पूर्व यहाँ कुए और नहरें नहीं थीं अपितु पहाड़ी झरनों के पानी से सिंचाई की जाती थी । इस प्रकार मेवाड़ की भूमि सामान्यतया ऊबड़-खाबड़ है। इस सम्बन्ध में एक सत्य कथा प्रचलित है ! एक बार महाराणा फतहसिंह जी से किसी अंग्रेज ने मेवाड़ के मानचित्र (map) की मांग की थी। तब महाराणाजी ने एक चने का पापड़ बनवाकर और उसे अग्नि पर सेक कर दिल्ली भेज दिया और उस पापड़ के साथ यह सन्देश भेज दिया गया कि यही हमारे मेवाड़ की रूपरेखा है । ऐतिहासिक पृष्ठभूमि अब तक गुहिल ने की जानकारी के डाली थी । इसी यद्यपि मेवाड़ के इतिहास का विषय अपने आप में शोध का विषय है, लेकिन आधार पर इतिहासकारों की ऐसी मान्यता है कि मेवाड़ राज्य की नींव छठी शताब्दी में वंश में आगे जाकर बप्पारावल, जो कालभोज भी कहे जाते हैं, हुए हैं । इन्होंने सन् ७३४ ई० में चितौड़ में मोरी वंश के तत्कालीन राजा मानसिंह को पराजित कर मेवाड़ को हमेशा के लिए अपने अधिकार में कर लिया। इसके बाद का इतिहास भी बहुत अधिक स्पष्ट नहीं है, एक तरह से कोई भी प्रमाणित सामग्री को अभी तक शोध नहीं हो सकी है । सन् १३०३ में अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़ पर आक्रमण किया उस समय चित्तौड़ पर रावल रतनसिंह का राज्य था । किन्तु वे पराजित हो गये और चित्तौड़ गुहिलवंश के हाथ से निकल गया । सन् १३२६ ई० में हमीर ने जो सिसोदिया वंश का प्रमुख था चित्तौड़ को वापस अपने अधिकार में लिया तथा उन्हें महाराणा कहा जाने लगा। तभी से आज तक मेवाड़ पर सिसोदिया वंश का शासन चला आ रहा है । इसी वंश में राणा सांगा, उदयसिंह, महाराणा प्रताप, महाराणा फतहसिंह, महाराणा भूपालसिंह जैसे तेजस्वी महाराणा हो चुके हैं। सन् १५५९ ई० में महाराणा उदयसिंह ने उदयपुर की नींव डाली और तभी से मेवाड़ की राजधानी उदयपुर हो गई । मेवाड़ की ऐतिहासिक पृष्ठ भूमि के सन्दर्भ में एक बात उल्लेखनीय है कि यहाँ के महाराणाओं के आराध्य देव श्री एकलिंग जी को मानते हैं जिनका भव्य एवं कलात्मक मन्दिर उदयपुर से लगभग १३ है । वे अपने आराध्य देव श्री एकलिंग जी को ही अपना राजा मानते हैं और वे मानते हैं । धर्म-वीर प्रसविनी मेवाड़-नू इस धर्मवीर प्रसविनी मेवाड़ भू ने अनेकानेक धर्मवीरों को जन्म दिया है। जिन्होंने धर्म-रक्षा के लिए अपने प्राणों तक की आहुति दे दी। तपस्वी राज श्री मानमल जी महाराज पूज्य श्री मोतीलाल जी म०, स्व० गुरुवर श्री ताराचन्द जी महाराज जैसे एक से एक बढ़कर जैन मुनि राज ने इसी मेवाड़ भूमि पर जन्म लिया। वहीं दूसरी ओर अनेक इतिहास पुरुष व नरवीरों से यह भूमि गौरवान्वित हुई है। जिनकी गौरव गाथाएँ आज मेवाड़ की भूमि के कणकण से मुखरित होती है। (१) पद्दिमनी का अग्नि प्रवेश—जैसा कि ऊपर लिखा जा चुका है कि सन् १३०३ में अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़ पर आक्रमण किया। उस समय रावल रतनसिंह चित्तौड़ के राजा था। उन्होंने पूरी शक्ति से औरंगजेब का मुकाबला किया, अन्त में रावल की हार हुई और उनकी विश्व प्रसिद्ध सुन्दर पत्नी ने अपने सतीत्व एवं देश की मानमर्यादा के लिए अपने को हजारों राजपूत वीरांगनाओं सहित अग्नि प्रवेश करा दिया। संसार के इतिहास में यही hadkaon Bla मील की दूरी पर स्थित अपने को उनका दीवान Jain Education internationa ou 000000000000 grap 000000000000 4000DDDDDD wwwPage Navigation
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