Book Title: Vikas ka Mukhya Sadhan
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 5
________________ २२ रको हलका ही करता है । भीतर ही भीतर सड़कर शरीर और चित्तको स्वस्थ बनाता है । यही स्थिति उस माताके कर्त्तव्य पालन में अपरिणत स्नेह भावकी होती है । हमने कभी भयवश रक्षण के वास्ते झोपड़ा बनाया, उसे सँभाला भी । दूसरोंसे बचने के निमित्त अखाड़े में बल सम्पादित किया, कवायद और निशानेबाजीसे सैनिक शक्ति प्राप्त की, आक्रमणके समय ( चाहे वह निजके ऊपर हो, कुटुम्ब, समाज या राष्ट्रके ऊपर हो ) सैनिकके तौरपर कर्त्तव्यपालन भी किया, पर अगर वह भय न रहा, खासकर अपने निजके ऊपर या हमने जिसे अपना समझा है या जिसको हम अपना नहीं समझते, जिस राष्ट्रको हम निज राष्ट्र नहीं समझते उसपर हमारी अपेक्षा भी अधिक और प्रचंड भय आ पड़ा, तो हमारी भय त्राण शक्ति हमें कर्त्तव्य पालन में कभी प्रेरित नहीं करेगी, चाहे भय से बचने - बचाने की हममें कितनी ही शक्ति क्यों न हो । वह शक्ति संकुचित भावोंमेंसे प्रकट हुई है तो जरूरत होनेपर भी वह काम न आएगी और जहाँ जरूरत न होगी या कम जरूरत होगी वहाँ खर्च होगी । अभी-अभी हमने देखा है कि यूरोपके और दूसरे राष्ट्रोंने भयसे बचने और बचानेकी निस्सीम शक्ति रखते हुए भी भयत्रस्त एबीसीनियाकी हजार प्रार्थना करनेपर भी कुछ भी मदद न की । इस तरह भयजनित कर्त्तव्य पालन अधूरा होता है और बहुधा विपरीत भी होता है । मोह कोटि में गिने जानेवाले सभी भावोंकी एक ही जैसी अवस्था है, वे भाव बिलकुल अधूरे, अस्थिर और मलिन होते हैं । जीवन-शक्तिका यथार्थं अनुभव ही दूसरे प्रकारका भाव है जो न तो उदय होनेपर चलित या नष्ट होता, न मर्यादित या संकुचित होता और न मलिन होता है । प्रश्न होता है कि जीवन-शक्ति के यथार्थ अनुभव में ऐसा कौनसा तत्व है जिससे वह सदा स्थिर, व्यापक और शुद्ध ही बना रहता है ? इसका उत्तर - पाने के लिए हमें जीवन शक्तिके स्वरूपपर थोड़ा-सा विचार करना होगा हम अपने आप सोचें और देखें कि जीवन शक्ति क्या वस्तु है । कोई भी समझदार श्वासोच्छवास या प्राणको जीवनकी मूलाधार शक्ति नहीं मान सकता, क्योंकि कभी कभी ध्यानकी विशिष्ट अवस्था में प्राण संचारके चालू न रहनेपर भी जीवन बना रहता है । इससे मानना पड़ता है कि प्राणसंचाररूप जीवनकी प्रेरक या आधारभूत शक्ति कोई और ही है। अभी तक सभी आध्यात्मिक सूक्ष्म अनुभवियोंने उस श्राधारभूत शक्तिको चेतना कहा है | चेतना एक ऐसी स्थिर और प्रकाशमान शक्ति है जो दैहिक, मानसिक और ऐंद्रिक श्रादि सभी कार्यों पर ज्ञानका, परिज्ञानका प्रकाश अनवरत डालती रहती है । इन्द्रियाँ कुछ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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