Book Title: Vijayprashasti Mahakavyam
Author(s): Hemvijay Gani, Gunvijay Gani
Publisher: Jinshasan Aradhana Trust

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Page 28
________________ प्रथमः सर्गः। ण्डितश्रीहेमविजयगणिसंबकः कविपुरन्दरः; श्रीगुरुगुरुतरभक्तिव्यक्तिमरूपकं, श्रीहीरविजयसूरिप्रभृतिभट्टारकत्रिकावदातकदम्बकनिरूपकं, श्रीरघुवंशदेशीयतया विजयवंशापरपर्यायधारक, विश्वविश्वावलयवर्तिचतुरचेतश्चमत्कारकारकं, विजयप्रशस्तिनामकं काव्यं कर्तुमुपचक्रमे । क्रमेण च षोडशे सर्गे पूरिते सति स वर्गमधिजग्मिवान् । अथ च निजकाव्यविद्याविद्यागुरोस्तस्य पितृव्यगुरोरुत्तमर्णत्वमिच्छता मया मुग्धधियाऽप्यतनसर्गपश्चकरचनेनैकविंशतिसर्गात्मकं तत्संपूर्ण निर्माय निर्मायमौलिरनसुविहितसूरिसमानभोरवयुवराज-श्रीविजयदेवमूरीन्द्र-चन्द्रोपदेशेन भाविनामल्पमेधसां विषमार्थसार्थप्रकाशकत्वेनोपकारकारिका, विजयमदीपिकाऽभिधानधारिका तट्टीका प्रकटीक्रियते । तत्र प्रतिकाव्यमलङ्काराणां भूयस्त्वेन सर्वात्मना ते ग्रन्थगौरवभयान्मया न वित्रियन्ते, ततस्तेऽलङ्कारमहोदधिप्रमुखालङ्कारग्रन्थेभ्योऽवगन्तव्याः। तथा सर्वत्र लिङ्कादिनिर्णयो लिङ्गानुशासनादेरवसेयः, अत्र तु कुत्रचिद् विशेषभूतस्य तस्य प्रतिपादनात् । छन्दोभेदस्तु प्रतिसगै मादुर्भावयिष्यते; कुत्रचिमोक्तश्चेत्तदा विशेपविद्भिश्छन्दश्चूडामणिप्रभृतेः स्वयमेव सोऽभ्यूख इति तात्पर्यम्।। ___ अब अन्यारम्भे अन्यकारः शिष्टसमयपरिपालनाय प्रत्यूहव्यूहमनमनायच समुचितेष्टदेवताऽऽदिनमस्कारलक्षणं मा समाचरन् प्रथमं पचमाह श्रेयांसि वः सृजतु नाभिभवो महेशः सत्योपलक्षितपुरः पुरुषोत्तमः सः।

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