Book Title: Vijaydevsuri Bhasdwaya Author(s): Vinaysagar Publisher: ZZ_Anusandhan View full book textPage 4
________________ अनुसन्धान ४३ है । उनको देखकर मन उल्लसित होता है, ऐसे गुरु मुझे मिले है । भवसमुद्र के फेरे से बचाने वाले हैं, सिद्धिविजय कहता है कि जब तक पृथ्वी है तब तक इनकी यशोकीर्ति बढ़ती रहे । (१) श्री विजयदेवसूरि भासद्वय सहगुरु आव्या मई सुण्या रे चाली सखी एक बार । महीमण्डल नउ राजीउ रे प्रणमई सुर नर नारि रे ॥ बहिनी वन्दीजई गुरुराज ॥ १ ॥ जिम सीझई सघला काज रे बहिनी वन्दीजई गुरुराज || सोल शृंगार सोहावती रे लावती मोतिनउ थाल । भाल तिलक रलियामणो रे भामणउ भगती रसाल रे कुमकुम केसर केवडउ रे कीजउ बहुल उद्योत । चोल तणी परि रातडउ रे गुर आगई रंगरोल रे सवि सोहासणी सुन्दरी रे ऊभी एकणि तीर गुण गावई गुरुजी तणा रे पहिरी नवरंग चीर रे श्री विजयदेवसूरिसरु रे सिद्धिविजय नउ सामि । नाम निरन्तर गाईई रे पाई सिवपद ठाम रे इति श्री विजयदेवसूरीश्वर भास समाप्त ॥ ब. २ ।। ॥ ब. ३ ॥ Jain Education International ॥ ब. ४ ॥ ( २ ) श्रीविजयदेवसूरि भास सुरसति मात नमी करी गुण गासुं रे विजयदेवसुरिंदरे । चंद चकोर तणी परि जस दीठई रे होवइ आणंद रे ॥ ॥ ब. ५ ॥ For Private & Personal Use Only चरण कमल गुरु वन्दंउ रे ॥ १ ॥ मुनिचन्दउ रे विजयदेवसूरीन्द, प्रभु टालइरे कुमत्यां ना कन्द । चरण कमल गुरु वन्दउ रे || आंकणी बालपणइ जिणई आदरु गुरु पासई रे रुडउ संयमभार । भवसायर मांहि बूडंता भविअण नइ रे ऊतारणहार ६१ ॥ च २ ॥ www.jainelibrary.orgPage Navigation
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