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मार्च २००८
श्री सिद्धिविजय रचित श्रीविजयदेवसूरि भासद्वय
म. विनयसागर
श्री विजयदेवसूरि भासद्वय के प्रणेता श्री सिद्धिविजय महोपाध्याय .. श्री मेघविजय के प्रगुरु (दादागुरु) थे और जगद्गुरु श्रीहीरविजयसूरिजी के
प्रशिष्य थे । सिद्धिविजयजीका समय १७ वीं शताब्दी का अन्तिम चरण या १८ वीं शताब्दी का प्रथम चरण माना जा सकता है। इनके द्वारा प्रणीत अन्य कृतियाँ अन्य भण्डारों में अवश्य ही प्राप्त होंगी, किन्तु मुझे अभी तक चार लघुकृतियाँ ही प्राप्त हुई हैं : - १- २. नेमिनाथ भास और ३-४. श्री विजयदेवसूरि भास !
श्री कैलाशसागरसूरि ज्ञान भण्डार, कोबा सूचि पत्र भाग-४ के अनुसार श्रीसिद्धिविजयकृत निम्न कृतिया और प्रास हुई है जो इस प्रकार है :सिद्धिविजय १४१४२ (१) सीमन्धर जिनस्तवन, वि० सं० १७१३, आदि-अनन्तचौवीसी
जिन नमू, अन्त-भविक जन मंगल करो, ढाल-७, गा०
१०६, पृ० ५अ (२) विजयप्रभसूरि स्वाध्याय, आदि-आवउ सजनी सहगुरु,
अन्त-भावविजय बुध सीसोजी, गा० ९ १४५३६ (४) जम्बूस्वामी सज्झाय, आदि-राजग्रही नगरी वसे, अन्त-तास
तणा गुण गाया रे, गा० १३ (२२) पंचइन्द्रिय सज्झाय, पृ० २८अ, आदि-रे जीउं विषय न
राचीइ, अन्त-सेवजो नीसदीसो रे, गा० १३ १८१५६ (३६) जम्बूस्वामी सज्झाय, आदि-राजग्रही नगरी वसे, अन्त
सिद्धविजय सुपवाया रे, गा० १४, पृ० १०आ-११अ.
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अनुसन्धान ४३
इसका स्फुट पत्र प्राप्त है, जिसमें चारों ही कृतियाँ एक साथ ही लिखी गई हैं। इस पत्र का माप २४.३ १०.४ से.मी. है, पत्र १ हैं, दोनों भासों की कुल पंक्ति १५ तथा प्रति अक्षर ४२ हैं । लेखन समय सम्भवतः १७वीं सदी का अन्तिम चरण है ।
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शासन प्रभावक विजयदेवसूरि प्रसिद्धतम आचार्य हुए हैं । ये जगद्गुरु श्रीहीरविजयसूरि के प्रशिष्य तथा श्रीविजयसेनसूरि के पट्टधर थे । विक्रम संवत १६३४ इलादुर्ग में जन्म संवत १६४३ राजनगर में श्री हीरविजयसूरि के करकमलों से माता के साथ दीक्षा, १६५५ सिकन्दरपुर में पन्यास पद, १६५६ स्तम्भतीर्थ में उपाध्याय पद और सूरिपद प्राप्त हुआ एवं श्री विजयसेनसूरि के स्वर्गवास के पश्चात् संवत १६७१ में भट्टारक पद प्राप्त किया ।
जगद्गुरु श्री हीरविजयसूरि के पश्चात् विजयदेवसूरि की दिग्गज आचार्यों में गणना की जाती है । विजयदेवसूरि रचित कोई साहित्य प्राप्त हो एसा ज्ञात नहीं है, किन्तु इनसे सम्बन्धित खरतरगच्छीय श्रीवल्लभोपाध्याय रचित (र. सं. १६८७ के आस- पास ) विजयदेवमाहात्म्य और श्री मेघविजयजी रचित श्रीतपगच्छापट्टावलीसूत्रवृत्त्यनुसन्धानम् के अनुसार इनका संक्षिप्त जीवन चरित्र प्राप्त होता है । सम्राट अकबर के सम्पर्क में ये आए हो ऐसा कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता है, किन्तु सम्राट जहांगीर के समय में इनका प्रभाव अत्यधिक बढ़ा था। जहांगीर इनको बहुत सम्मान देता था और गुरु के रूप में स्वीकार करता था । यही कारण है कि संवत् १६८७ माण्डवगढ़ में श्री जहांगीर ने इनको महातपा बिरुद प्रदान किया था ।
इन्हीं के कार्यकाल में विजयदेवसूरि एवं विजय आनन्दसूरि शाखाभेद हुआ । श्रीदर्शनविजयजी ने विजयतिलकसूरि रास में जिस घटना का वर्णन किया है, वह विचारणीय अवश्य है । खरतरगच्छीय श्री ज्ञानविमलोपाध्याय के शिष्य श्री श्रीवल्लभोपाध्याय ने तो इसका संकेत मात्र ही किया है और सम्भवत: इनकी कीर्ति से प्रभावित होकर श्री वल्लभोपाध्याय ने विजयदेवमाहात्म्य रचा था । संवत १६८७ के पश्चात् किसी घटना का उल्लेख नहीं है । इसी वर्ष इस माहात्म्य को पूर्ण कर दिया । स्तम्भनतीर्थ, इलादुर्ग, घोघाबन्दर, द्वीप,
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सिरोही, माण्डवगढ़, मेडता आदि अनेक स्थानों पर आचार्यश्री ने प्रतिष्ठा करवाई थी । इन्हीं के उपदेश से जाबालीपुर (जालोरदुर्ग) तीर्थ पर विशाल चैत्य का निर्माण, प्रतिष्ठादि हुए थे । इनके द्वारा प्रतिष्ठित, लेख सहित, शताधिक मूर्तियां आज भी प्राप्त हैं । विजयदेवसूरि के पट्टधर विजयसिंहसूरि हुए ,जिनका जन्म १६४४, दीक्षा १६५४, वाचकपद १६७२ और सूरिपद १६८१ में प्राप्त हुआ था । स्वर्गवास १७०९ में हो गया था। किसनगढ़ के दीवान श्री रायसिंहजी-निर्मापित का चिन्तामणी पार्श्वनाथ मन्दिर आज भी इनका स्मरण करवा रहा है । स्वरूपट्टधर आचार्य विजयसिंहसूरि का स्वर्गवास होने पर श्री विजयदेवसूरि ने उनके पट्ट पर विजयप्रभसूरि को बिठाया था।
सिद्धिविजय रचित विजयदेवसूरि भासद्वय का संक्षिप्त परिचय :
महीमण्डल के राजवी श्री विजयदेवसूरि यहाँ पधारे हैं। सब उनको नमस्कार कर रहे हैं । उनको वन्दन करने के लिए चलें । दूसरे पद्य में सोलह शृंगारों से सुशोभित महिलाएं भाल पर तिलक कर, मोतियों का थाल लेकर उनके स्वागत के लिए चली । गुरु के सन्मुख कुमकुम, केसर, केवडा के साथ घोल बनाकर गुरु के सन्मुख रंगोली करती हैं । चौथे पद्य में सभी सोहागिनी सुन्दर स्त्रियाँ नवरंग वस्त्र धारण कर एक किनारे खड़ी होकर गुरुजी के गुणगान कर रही हैं । सिद्धिविजय कहता है कि विजयदेवसूरि का नाम निरन्तर गाने से शिवपद प्रास होता है।
दूसरे भास में - सरस्वती को नमस्कार कर कवि गुरु विजयदेवसूरिन्द के गीत गाने की प्रतिज्ञा करता है, जिस प्रकार चन्द्र को देखकर चकोर हर्षित होता है उसी प्रकार आचार्य को देखकर आनन्दित होते हैं और उनके चरणों. में गुरुवन्दन करते हैं। दूसरे पद्य में विजयदेवसूरि मुनियों में चन्द्रमा के समान हैं, और कुमतियों को समूल नष्ट करने वाले हैं । बाल्यावस्था में जिन्होंने संयम धारण किया और गुरु के पास में शुद्धाचार का पालन किया ऐसे आचार्य हमें भवसागर में डूबते हुए भवियों के तारणहार हैं । तीसरे पद्य में सुमति-गुप्ति रूपी रमणियों के साथ रमण करने वाले हैं, इन्द्रियों का दमन करने वाले हैं, मुनियों के ताज हैं । जिनकी दन्तपंक्ति सोने की मेख से जटित
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अनुसन्धान ४३
है । उनको देखकर मन उल्लसित होता है, ऐसे गुरु मुझे मिले है । भवसमुद्र के फेरे से बचाने वाले हैं, सिद्धिविजय कहता है कि जब तक पृथ्वी है तब तक इनकी यशोकीर्ति बढ़ती रहे ।
(१) श्री विजयदेवसूरि भासद्वय
सहगुरु आव्या मई सुण्या रे चाली सखी एक बार । महीमण्डल नउ राजीउ रे प्रणमई सुर नर नारि रे ॥ बहिनी वन्दीजई गुरुराज ॥ १ ॥
जिम सीझई सघला काज रे बहिनी वन्दीजई गुरुराज || सोल शृंगार सोहावती रे लावती मोतिनउ थाल । भाल तिलक रलियामणो रे भामणउ भगती रसाल रे
कुमकुम केसर केवडउ रे कीजउ बहुल उद्योत । चोल तणी परि रातडउ रे गुर आगई रंगरोल रे सवि सोहासणी सुन्दरी रे ऊभी एकणि तीर गुण गावई गुरुजी तणा रे पहिरी नवरंग चीर रे श्री विजयदेवसूरिसरु रे सिद्धिविजय नउ सामि । नाम निरन्तर गाईई रे पाई सिवपद ठाम रे
इति श्री विजयदेवसूरीश्वर भास समाप्त
॥ ब. २ ।।
॥ ब. ३ ॥
॥ ब. ४ ॥
( २ ) श्रीविजयदेवसूरि भास
सुरसति मात नमी करी गुण गासुं रे विजयदेवसुरिंदरे । चंद चकोर तणी परि जस दीठई रे होवइ आणंद रे ॥
॥ ब. ५ ॥
चरण कमल गुरु वन्दंउ रे ॥ १ ॥
मुनिचन्दउ रे विजयदेवसूरीन्द, प्रभु टालइरे कुमत्यां ना कन्द । चरण कमल गुरु वन्दउ रे || आंकणी
बालपणइ जिणई आदरु गुरु पासई रे रुडउ संयमभार । भवसायर मांहि बूडंता भविअण नइ रे ऊतारणहार
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॥ च २ ॥
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________________ 6 मार्च 2008 सुमति गुपति रमणी रमई वली जे दमई रे इंद्री / मुनिताज काज सरई दरिसन थकां गुर आपई रे शिवपुर नऊ राज // च. 3 // दन्ति पन्ति हीरे जड़ी सोवन घडी रे विचइ रुड़ी रेख / पेखि सखि मनि उलसई कमलाकर रे जिम सूरज देखी // च. 4 // सोभागी मुझ मलउ सखि तउ टलउ रे भवसागर फेर / सिद्धिविजय कहई तां तपउ गुरु माहरु रे जिहां महियल मेर // च. 5 / / मुनिचंदउ रे विजयदेवसुरीन्द / / इति श्री विजयदेवसूरीश्वर भास समाप्त