Book Title: Videsho me Dharmik Astha
Author(s): Mahendrakumar Jain
Publisher: Z_Jaganmohanlal_Pandit_Sadhuwad_Granth_012026.pdf

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Page 2
________________ विदेशों में धार्मिक आस्था ८९ कमरे में सामान रख चुकने के बाद जब मैं हाथ-मुंह धोकर तैयार हुआ, तो उन्होंने मुझे अपने ही 'ड्राइंग रूम' में बुला लिया और बिस्किट-काफी देने के बाद मुझसे मेरे विषय में पूछने लगी। मैंने उन्हें बताया, "मैं जैन धर्म मानता हूँ', तो उनकी समझ में कुछ नहीं आया। उन्हें यह तो पता था कि मैं नाम से जैन हूँ, पर धर्म से भी मैं जैन हूँ, यह उन्हें कुछ बेतुका-सा लग रहा था। बाद में जब मैंने उन्हें जैन धर्म के विषय में कुछ बातें बताई, तो उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने और भी जिज्ञासा प्रकट करते हुए कहा, "वे कल पब्लिक लाइब्रेरी जाकर जैनधर्भ सम्बन्धों कुछ पुस्तकें लाकर पढ़ेंगी।" लगमग १९६८-६९ की बात है। तब मैं सपरिवार लंदन के बालहम क्षेत्र में रह रहा था। हमारे घर से कुछ ही दूर एक अंग्रेज पादरी रहते थे। उन्हें जब मेरे विषय में पता चला, तो एक दिन उन्होंने मुझे अपने घर पर के लिये आमन्त्रित किया। मैं जब उनके घर गया, तो उन्होंने भारत और जैनधर्म पर बहत देर तक बातें की। वे जैनधर्म के सम्बन्ध में पहले से भी काफी जानते थे, यह जानकर मुझे आश्चर्य नहीं हुआ। ईसाई होते हुए भी उन्हें केवल जैनधर्म ही नहीं, अन्य धर्मों के विषय में भी जानकारी थी। वे सदा अन्य धर्मावलम्बियों को अपने घर बुलाया करते थे। उनका उद्देश्य कभी यह नहीं रहा, जैसी कि भारत में पादरियों के सम्बन्ध में धारणा है, कि किसी से परिचय-मैत्री कर धीरे-धीरे उसका धर्मपरिवर्तन करने की चेष्टा करें। उनके चर्च की ओर से प्रतिवर्ष ग्रीष्म काल में 'गार्डेन पार्टी होती थी। उसमें वे अन्य देशों के लोगों को ही नहीं, अपने परिचित-अपरिचित अन्य धर्मावलम्बियों को भी बुलाते थे। उनका व्यवहार सभी के साथ शिष्ट और समभावी था । वे जब तक बालहम चर्च में रहे, उनसे हमारा अच्छा संपर्क रहा। वे हमारे यहाँ अनेक वार खाना खाने भी आये । व्यक्तियों की बात तो दूर, ब्रिटिश काउन्सिल' जैसी संस्थायें भी इसी उद्देश्य से काम करती हैं, परिचय, जिज्ञासा शान्ति और ज्ञानवृद्धि। . इंग्लैंड, आयरलैंड तथा अफ्रीका के देशों में मैं जहाँ जहाँ रहा, मैंने कभी यह अनुभव नहीं किया कि मुझसे धर्म के कारण किसी ने अन्यथा भाव से व्यवहार किया हो । मुझे सदैव अच्छे पड़ोसी मिले, परिचित मिले, मैं बराबर उनके यहां भोज और पार्टियों के आमंत्रण पर जाता था । जब उन्हें हमारे शाकाहारी होने का पता चलता था, तो इस बात का प्रयत्न करते थे कि हमारे भोजन में गल्ती से ऐसी चीज न चली जावे, जो शाकाहार में शामिल न हो। पहले वे यही समझते थे कि मैं जैन होने के कारण शाकाहारी हूँ। पर बाद में मैंने उन्हें स्पष्ट किया, "प्रारंभ में जन्मजात जैन होने से मैं संस्कारवश शाकाहारी रहा, पर अब वयस्क होने पर हम स्वयं सोचने लगे हैं कि हमें शाकाहारी रहना चाहिये ।" मुझे यूरोप में अनेक ऐसे ईसाई मिले जो मुझसे भी कट्टर शाकाहारी थे । वे दूध, दूध से बनी चीजें-मक्खन, पनीर आदि भी नहीं खाते थे। भारत में धर्म के प्रति लोगों को आस्था क्रमशः धटती जा रही है, पर हमारे अपने अनुभव में, इग्लैण्ड में इसके विपरीत धार्मिक आस्था बढ़ रही है। हमारे यहाँ भले ही नये नये मन्दिर बन रहे हैं, पंच कल्याणक प्रतिष्ठायें हो रही हैं, गजरथ निकल रहे हैं, पर इग्लण्ड में भले ही नये गिरजाघर न बन रहे हों, पर पहले से बने गिरजाघरों की मरम्मत देखभाल आदि पर पर्याप्त ध्यान दिया जाता है। अपने लम्बे प्रवास काल में मुझे कभी यह सुनने को नहीं ा कि अमुक जगह कोई नया गिरिजाघर बनने वाला है। उसके लिये चन्दा एकत्र किया जा रहा है। अपने विदेश प्रवास में मुझे अनेक बार पूर्वी और पश्चिमी यूरोप जाने के अवसर मिले । प्रायः सभी जगह मैंने वहाँ के गिरजाधर भी देखे । वहाँ जो शान्ति का अनुभव होता है, वह बिना उनमें जाये, अकल्पनीय ही है । भारत में एक ही शहर में कई मन्दिर होते हैं और कुछ लोगों के अपने रुचि के अनुकूल खास-खास मन्दिर बन जाते हैं। वे उसी में विशेष रूप से जाना पसन्द करते हैं। यही स्थिति विदेशों में भी है। यह जरूरी नहीं कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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