Book Title: Videsho me Dharmik Astha
Author(s): Mahendrakumar Jain
Publisher: Z_Jaganmohanlal_Pandit_Sadhuwad_Granth_012026.pdf

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Page 1
________________ विदेशों में धार्मिक आस्था डॉ० महेन्द्र राजा जैन इंडियन एक्स्प्रेस, नई दिल्ली पच्चीस वर्षों से अधिक समय तक विदेशों में रहकर अब जब मैं भारत लौटा हूं, तो यहाँ रहते हुए मेरे ध्मान में बराबर एक बात आती है। धर्म के विषय में हम लोग संकीर्ण क्यों हैं ? मैं या मेरे समान अन्य अगणित जन्मजात जैन अन्य धर्मों की बात तो दूर, स्वयं अपने ही धर्म के विषय में कितना जानते हैं ? बचपन में मेरी शिक्षा वर्णी विद्यालय, सागर, बड़वानी तथा वाराणसी के स्याद्वाय महाविद्यालय में हुई। इन तीनों ही जगह प्रायः एकही पद्धति से जैनधर्म सम्बन्धी जो बातें मुझे बताई, सिछाई गई, वे अभी भी मुझे अच्छी तरह याद हैं । परम्परागत शास्त्रीय पद्धति से सिखाई गई उन बातों के सामाजिक, सांस्कृतिक और सार्वदेशिक स्वरूप को हमें कभी नहीं सयझाया गया। हमें केवल यही बताया गया कि जैन शास्त्रों और धर्मग्रन्थों में जो लिखा है, वही पढ़कर परीक्षा पास करना है। उन बातों के सम्बन्ध में शंका-संदेह हमें अधार्मिक एवं अजैन की पात्रता देगा। हमें यह तो बताया गया कि अमुक धर्मानुयायी मांसाहारी हैं, म्लेच्छ हैं, वे पर्वो के दिन हिंसा करते हैं, अतः हमें उनसे दूर रहना चाहिये। पर हमें यह कभी नहीं बताया गया कि पूरान-जैन धर्मग्रन्थों में क्या लिखा है ? हिन्दू और जैन अन्य पश्चिमी धर्मों को भी म्लेच्छ और भ्रष्ट मानते हैं । पर हमने कभी यह जानने का यत्न नहीं किया कि उनके धर्मग्रन्थों में क्या लिखा है ? आज जैन समाज में अगणित पण्डित और धर्माचार्य प्रतिदिन अपने भाषणों में अन्य धर्मों की निन्दा करते देखे जाते हैं। पर कितनों ने उनके धर्म ग्रन्थों को पढ़ा है ? गीता, कुरान, बाइबिल, जिन्द अवेस्ता आदि धर्मग्रन्थों का अध्ययन कर कितनों ने उनके मूलतत्वों को जानने की कोशिश की है ? जैनधर्म का मूल सिद्धान्त है--घृणा पापो से नहीं, पाप से करना चाहिये । पर आज ही क्या, हम तो प्रारम्भ से ही व्यक्ति से घृणा करते आ रहे हैं। हमें बचपन से सिखाया ही यही गया है। अन्यथा क्या कारण है कि अन्य धर्मों का नाम सुनते ही हम मंह फेर लेते हैं ? संभवतः यह बतलाने की आवश्यकता नहीं कि ब्रिटेन के मूल निवासियों में प्रायः ९९.९९ प्रतिशत ईसाई हैं । इनमें भी अपने यहां के हिन्दुओं और जैनों के समान अलग-अलग वर्ग बन गये हैं - कैथोलिक, प्रोटेस्टेन्ट, बैप्टिस्ट, प्रेस्बीटेरियन, सेवन्थ डे एडवेन्टिस्ट, क्रिस्टियन साइन्टिस्ट आदि । मूलतः ये सभी ईसाई हैं । लन्दन में पहले ही दिन मैं जिस परिवार में 'पेइंग गैस्ट' के रूप में ठहरा, उस परिवार की महिला ने मेरा धर्म, जाति आदि पूछे बिना ही सहर्ष कुछ समय के लिये अपना एक कमरा किराये पर दे दिया। किराये में सुबह का नाश्ता भी शामिल था। मैं मैडम सी होम के यहां शाम को पहुँचा था। उन्होंने सुबह नाश्ते के विषय में पूछा, "आप क्या लेना पसन्द करेंगे?' ___ "जो आप सामान्यतः लेते हैं, वही मैं ले लूंगा। पर मैं शाकाहारी हूँ। अंडा, मांस, मझली आदि कुछ भी नहीं लूंगा।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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