Book Title: Vartaman Sandarbh me Jain Ganit ki Upadeyata
Author(s): Parmeshwar Jha
Publisher: Z_Mahasati_Dway_Smruti_Granth_012025.pdf

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Page 3
________________ भगवती सूत्र (३०० ई.पू.), स्थानांग सूत्र, अनुयोगद्वार सूत्र आदि जैन ग्रंथों में अति प्राचीन काल से ही क्रमचय-संचय सम्बन्धी विषय भंग एवं विकल्प शीर्षकों के अन्तर्गत विशदता के साथ प्रतिपादित किया गया है। भगवती सूत्र में इसका विवेचन व्यापक रूप में किया गया है। एकक संयोग, द्विक संयोग, त्रिक संयोग आदि मूलभूत प्रमाण दिए गए हैं जिन्हें निम्नलिखित रूप में व्यक्ति किया जा सकता है : '"c1- n, = n, n = n(n-1),n . = n(n-1)(n-2) '", "c2 1.2 ' "3 1.2.3 तथा "p, = n, "p, = n (n-1) आदि। यतिवृषभ, वीरसेनाचार्य, शीलांक, नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती आदि जैन विद्वानों ने तत्सम्बन्धी नियमों का विवेचन किया है तथा विभिन्न पहलुओं पर भी विचार किया है। क्रमचय संचय सम्बन्धी से नियम अभी भी प्रयोग में लाए जाते हैं। इसके साथ ही द्विपद प्रमेय के विकास का भी उन लोगों ने पथ प्रशस्त किया है। विभिन्न प्रकार के समीकरणों यथा सरल, द्विघाती एवं अनिर्णित प्रथम घातीय समीकरणों को हल करने की विधियाँ भी जैनाचार्यों को ज्ञात थी। स्थानांग सूत्र में प्रयुक्त यावत-तावत, वर्ग, धन, वर्ग-वर्ग आदि शब्दों में इसकी पुष्टि होती है। लघुगणक सिद्धान्त के जन्मदाता जाने नेपियर (१५५०-१६१७ ई.) एवं वर्गी (१६०० ई.) माने जाते हैं, पर उनसे लगभग सात सौ वर्ष पहले ही धवला में इसका प्रयोग पाया जाता है। संक्रियाओं का उपयोग मिलता है जो लघुगणक के निम्नलिखित नियमों के परिचायक हैं १२: ___ log, (x/y) = Log,x -log,y, log, (xy) = log,x+logy log2* = x, log, (2*)x* = x* log, (z*) आदि आधार २ की जगह ३, ४ आदि किए जा सकते हैं तथा उन्हें सामान्यीकृत भी किया जा सकता है। . आज राशि सिद्धान्त (समुच्चय) इतना विकसित हो चुका है कि कोई विज्ञान इससे न अछूता है और न ही इसके बिना आधारित है। इसके प्रवर्तक जार्ज केन्टर (१८८५-१९१५) माने जाते हैं, पर उस राशि सिद्धान्त का विवेचन अति प्राचीन काल में ही जैन ग्रंथों में उपलब्ध है। षट्खंडागम तिलोय पण्णती, धवला, त्रिलोकसार आदि ग्रंथों में तत्सम्बन्धी अभिधारणा, भेद-उपभेद, उदाहरण तथा उन पर संक्रियाएँ दृष्टिगोचर होती हैं १२ विभिन्न प्रकार की राशियों का उल्लेख हैं तथा परिमित अपरिमित, रिक्त एवं एकल समुच्चयों के उदाहरण भी उपलब्ध है। श्रेणियों के सम्बन्ध में जैनाचार्यों का योगदान अद्वितीय है। तिलोयपण्णती एवं त्रिलोकसार में विभिन्न प्रकार की श्रेणियों का विशद विवेचन है। नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती (१० वीं शताब्दी) ने धाराओं का प्रकरण विस्तार पूर्वक लिखा है। उन्होंने १४ प्रकार की धाराओं की विस्तृत चर्चा के साथ-साथ सूत्रों का विश्लेषण भी किया है। उनके ग्रंथ त्रिलोक सार में तो वृहत्धारा परिकर्म नामक एक गणितीय ग्रंथ की भी चर्चा है। इससे इस तथ्य की पुष्टि होती है कि उस समय तक धाराओं से सम्बन्धित स्वतंत्र जैन ग्रंथ उपलब्ध था। (१५०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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