Book Title: Vartaman Samay me jain Siddhanto ki Upadeyta
Author(s): Vinaykumar
Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 3
________________ चतुर्थ खण्ड / 206 धर्म-अधर्म सब भूल जाता है। उसे केवल पैसा ही पैसा दीखता है। वैसी स्थिति में मनुष्य के सद्गुण लुप्त हो जाते हैं, उसमें दुर्गुण अपना अड्डा बना लेते हैं। जैनधर्म में परिग्रह के त्याग पर बड़ा जोर दिया गया है। उस द्वारा स्वीकृत पाँच महान् व्रतों में अपरिग्रह भी है। उसके अनुसार साधक की वह स्थिति अत्यन्त पवित्र होती है, जहाँ वह परिग्रह का सर्वथा परित्याग कर देता है। जीवन में अपरिग्रह का भाव परिव्याप्त हो जाने पर, दूसरे शब्दों में / सन्तोष व्याप्त हो जाने पर अद्भुत शान्ति का अनुभव होता है। परिग्रह के लिए ही तो प्रादमी मारा-मारा फिरता है, नीच-पुरुषों की खुशामद करता है, अपमान, भर्त्सना आदि सब कुछ सहता है / यदि वह परिग्रह-लिप्सा से मुक्त हो जाय तो निश्चय ही उसके जीवन में शान्ति का अथाह समुद्र हिलोरे लेने लगता है। वास्तव में जैनधर्म के प्रादर्श विश्वजनीन हैं। जैनधर्म संकीर्ण सांप्रदायिकता के परिवेश से सर्वथा विमुक्त है। वह जीवन का यथार्थ दर्शन है, एक शीलमय प्राचार-पद्धति है, जो सत्य की पृष्ठभूमि पर अवस्थित है। उसके सिद्धान्त निश्चय ही आज के वैषम्यपूर्ण युग में समता, शान्ति, समन्वय और सह-अस्तित्व की सजीव प्रेरणा देने में समर्थ हैं। जैनसन्तों, विद्वानों एवं उपासकों को चाहिए कि जैनधर्म के इस विराट् एवं शाश्वत शान्तिप्रद विचार-दर्शन को वे जन-जनव्यापी बनाने का सत्प्रयास करें। 00 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 2 3