Book Title: Vartaman Samay me jain Siddhanto ki Upadeyta
Author(s): Vinaykumar
Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf

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________________ वर्तमान समय में जैन सिद्धान्तों की उपादेयता 0 मुनिश्री विनयकुमार 'भीम' कहने को कहा जाता है, वर्तमान युग ने बहुत उन्नति की है, एक अपेक्षा से यह सच भी है, भौतिक विज्ञान उच्चता तक पहुँचा है और पहुँचता जा रहा है। उस द्वारा ऐसे ऐसे चामत्कारिक निर्माण हुए हैं, जिनकी संभवत: मानव को कोई कल्पना ही नहीं थी । यह सब तो हुआ, पर यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि उसने अाज बहुत खोया भी है । इतना खोया है कि कभी-कभी तो उसे ऐसा मानने में संकोच होने लगता है कि वह मानव भी है क्या । वैज्ञानिक विकास तो हुआ पर कौन नहीं जानता कि उससे सारा जगत् आज आतंकित और भयाक्रांत है। महान वैज्ञानिक की प्रतिभा का अधिकतम भाग ऐसे विध्वंसक शस्त्रास्त्रों के निर्माण में लग रहा है, जो क्षणभर में जगत् में प्रलय मचा सकें। विध्वंसक साधन-सामग्री के आविष्करण और सर्जन की यह प्रक्रिया उत्तरोत्तर तीव्रगति के साथ चल रही है। इन शस्त्रास्त्रों का कहीं प्रयोग हो न जाय, इस भीति से मानव विपुल नर-संहार से बचने हेतु कभी कभी अनाक्रमण-सन्धि की चर्चाएँ करता है, कभी विश्व-मैत्री की बातें करता है पर भीतर ही भीतर सब एक दूसरे के प्रति अविश्वासी तथा शंकाशील हैं । सचमुच आज सर्वत्र एक ऐसा वातावरण छाया है, जिसमें पारस्परिक अविश्वास, संशय तथा दुराव के भाव व्याप्त हैं। सभी शान्ति की बातें करते हैं, चाह भी रखते हैं पर वैसा सध नहीं पाता । आज के इस विषम युग में, मैं यह समझता हूँ, श्रमण भगवान् महावीर द्वारा प्रतिपादित जीवन-दर्शन या जैन धर्म के सिद्धान्तों की वस्तुत: बहुत बड़ी उपयोगिता है। अहिंसा जैनधर्म का महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है। अहिंसा की चर्चा तो अन्यान्य धर्मों में भी यथाप्रसंग होती रही है, पर वैचारिक एवं व्यावहारिक दोनों दृष्टियों से जैनधर्म इसमें अत्यन्त सूक्ष्मता तथा गहराई तक पहुँचा। उसकी मान्यता है कि न केवल किसी प्राणी के प्राणों का विच्छेद करना हिंसा है, वाणी द्वारा किसी को प्राघात पहुँचाना भी हिंसा है। किसी के प्रति दुर्विचार लाना भी हिंसा है। यद्यपि जिसके प्रति मन में दुविचार लाए जाते हैं, उसको वे दिखाई नहीं देते किन्तु जो दुर्विचार लाता है, उसके मन को तो वे विकृत तथा दूषित कर ही डालते हैं। विकारमय तथा दोषग्रस्त चिन्तनधारा वातावरण में अशांतिमय स्थिति का निष्पादन करती है, ज्ञानीजन ऐसा बतलाते हैं। किसी भी क्रिया (Action) की प्रतिक्रिया (Reaction) होती है, यह सुनिश्चित है। कोई व्यक्ति यदि अपने मन में, वचन में तथा कर्म में अहिंसा स्वीकार करता है तो उससे सम्बद्ध जितने भी व्यक्ति हैं, प्रतिक्रिया-स्वरूप उनमें अहिंसक भाव उत्पन्न होता है । वातावरण सहज ही पवित्र बनता है। यदि एक राष्ट्राध्यक्ष भावात्मक रूप में भी यथार्थतः अहिंसा को स्वीकार करले तो उसमें जरा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

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