Book Title: Varna Jati aur Dharm ek Chintan Author(s): Jyoti Prasad Jain Publisher: Z_Fulchandra_Shastri_Abhinandan_Granth_012004.pdf View full book textPage 1
________________ ६३८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ (८) निज मनोमणि सिद्धमहं परिपूजये (सिद्धपूजा भावाष्टक १ला श्लोक ) अपने मन रूपी मणिके अमृत रसकी धारासे केवलज्ञान रूपी कलासे मनोहर सहज सिद्ध पात्रमें भरे हुए समता रस रूपी अनुपम परमात्माकी मैं पूजा करता हूँ । ** (९) जिनस्नानं ''''सन्मार्गप्रभावना ( षोडशकारण पूजा श्लोक १७वां) जिनदेवका अभिषेक, श्रुतका व्याख्यान, गीत वाद्य तथा नृत्य आदि पूजा जहाँ की जाती है वह सन्मार्ग प्रभावना है । (१०) सच्चेण जि सोहइ'' तियस सेवा वहति ( दशलक्षण पूजा गाथा ४ सत्यधर्म) सत्य से मनुष्य जन्म शोभा पाता है, सत्य से ही पुण्य कर्म प्रवृत्त होता है, सत्यसे सब गुणोंका समुदाय महानताको प्राप्त होता है और सत्य के कारण ही देव सेवा व्रत स्वीकार करते हैं । अनूदित अंशोंको दृष्टिपथमें रखते हुए कहा जा सकता कि अनुवाद बहुत अच्छा हुआ । अनावश्यक विस्तार-संक्षेप दोनों ही नहीं हैं । अनुवादकी भाषापर संस्कृतनिष्ठ शैलीका प्रभाव सुस्पष्ट लक्षित होता है । वास्तवमें विद्वान् सम्पादकने ज्ञानपीठ पूजाञ्जलिके प्रणयनमें पर्याप्त परिश्रम किया है । पूजाञ्जलि जैसा प्रयत्न अपनी दिशाका सुदृढ़ सशक्त चरण है और उसकी सफलताका बहुत कुछ श्रेय पंडित फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्रीको है । उन्होंने स्वतन्त्र होकर जिन ग्रन्थोंके भाष्य लिखे, उनमें आपकी उच्चकोटिकी विद्वत्ता पग-पग पर लक्षित होती है । इसमें कोई सन्देह नहीं है कि "ज्ञानपीठ-पूजांजलि" के प्रास्ताविक वक्तव्यमें प्रकाशित पण्डितजीके विचार आज भी प्रेरणादायक, वतमान परिस्थितिमें जैन समाजको जागृत करने वाले, स्फूर्ति प्रदान करने वाले हैं । पण्डितजीने निष्कर्ष रूपमें यह तथ्य उजागर किया है कि वर्तमान पूजा-विधिमें कृति - कर्मका जो आवश्यक अंश छूट गया है, यथास्थान उसे अवश्य ही सम्मिलित कर लेना चाहिए और प्रतिष्ठा पाठके आधारसे इसमें जिस तत्त्वने प्रवेश कर लिया है, उसका संशोधन कर देना चाहिए। क्योंकि पंचकल्याणक प्रतिष्ठा विधि में और देवपूजामें प्रयोजन आदिकी दृष्टिसे बहुत अन्तर है । प्रतिष्ठा विधिमें प्रतिमाको प्रतिष्ठित करनेका प्रयोजन है और देव- पूजामें प्रतिमाको साक्षात् जिन मान कर उसकी उपासना करनेका प्रयोजन है । अतः समाजको इसी दृष्टिसे पूजा-पाठ करना चाहिए । इस प्रकार पूजाञ्जलि कई दृष्टियोंसे उपयोगी एवं महत्त्वपूर्ण है । भविष्य में भी जैन विद्वान् इस प्रकार - के संकलन तैयार कर जैन पूजाविधिपर अधिक से अधिक शोधपूर्ण विचार प्रकाशित कर सकेंगे । Jain Education International वर्ण-जाति और धर्म : एक चिन्तन 'वर्ण, जाति और धर्म' श्री पं० फूलचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्री प्रणीत एक ऐसी विचारोत्तेजक, पठनीय एवं मननीय कृति है, जिसमें आधुनिक युगकी एक ज्वलन्त समस्याका आगम और युक्ति के आलोक में विशद विवेचन तथा समाधान प्रस्तुत करनेका उत्तम प्रयास किया गया है । पुस्तक प्रणयनमें मुख्य प्रेरक स्व० साहू शान्तिप्रसाद जैन थे, जो अपने प्रगतिशील विचारों, सुलझी हुई समीचीन दृष्टि, उदाराशय, दानशीलता और डॉ० ज्योतिप्रसाद जैन, लखनऊ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 2 3 4 5