Book Title: Vandana Aavashyak
Author(s): Amarmuni
Publisher: Z_Jinavani_002748.pdf

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Page 2
________________ - ||15,17 नवम्बर 2006 जिनवाणी 119 व्यक्ति गुणी पुरुषों द्वारा वन्दन कराता है तो वह असंयम में और भी वृद्धि करके अपना अधः पतन करता है। जैन धर्म के अनुसार द्रव्य और भाव दोनों प्रकार के चारित्र से संपन्न त्यागी, वीतराग, आचार्य, उपाध्याय, स्थविर एवं गुरुदेव आदि ही वन्दनीय हैं। इन्हीं को वन्दना करने से भव्य साधक अपना आत्मकल्याण कर सकता है, अन्यथा नहीं। साधक के लिए वही आदर्श उपयोगी हो सकता है, जो बाहर में भी पवित्र एवं महान् हो और अन्दर में भी। वन्दन आवश्यक का यथाविधि पालन करने से विनय की प्राप्ति होती है, अहंकार अर्थात् गर्व का (आत्म-गौरव का नहीं)नाश होता है, उच्च आदर्शों की झाँकी का स्पष्टतया भान होता है, गुरुजनों की पूजा होती है, तीर्थंकरों की आज्ञा का पालन होता है और श्रुत धर्म की आराधना होती है। यह श्रुत धर्म की आराधना आत्मशक्तियों का क्रमिक विकास करती हुई अन्ततोगत्वा मोक्ष का कारण बनती है। भगवती सूत्र में बतलाया गया है कि-'गुरुजनों का सत्संग करने से शास्त्र-श्रवण का लाभ होता है; शास्त्र श्रवण से ज्ञान होता है, ज्ञान से विज्ञान होता है और फिर क्रमशः प्रत्याख्यान, संयम, अनाम्रव, तप, कर्मनाश, अक्रिया अथ च सिद्धि का लाभ होता है। . सवणे णाणे य विणणे, पच्चलखाणे य संजमे। अणण्हए तये घेय, वोटाणे अकिरिया सिद्धी ।।-भगवती २/५/११२ गुरु-वन्दन की क्रिया बड़ी ही महत्वपूर्ण है। साधक को इस ओर उदासीन भाव नहीं रखना चाहिए। मन के कण-कण में भक्ति-भावना का विमल स्रोत बहाये बिना वन्दन द्रव्य वन्दन हो जाता है और वह साधक के जीवन में किसी प्रकार की भी उत्क्रान्ति नहीं ला सकता। जिस वन्दन की पृष्ठ भूमि में भय हो, लज्जा हो, संसार का कोई स्वार्थ हो, वह कभी-कभी आत्मा का इतना पतन करता है कि कुछ पूछिए नहीं। इसीलिए द्रव्य वन्दन का जैन धर्म में निषेध किया गया है। पवित्र भावना के द्वारा उपयोगपूर्वक किया गया भाव वन्दन ही तीसरे आवश्यक का प्राण है। आचार्य मलयगिरि आवश्यकवृत्ति में, द्रव्य और भाव-वन्दन की व्याख्या करते हुए कहते हैं- 'द्रव्यतो मिथ्यादृष्टेरनुपयुक्त-सम्यग्दृष्टेश्च, भावतः सम्यग्दृष्टरुपयुक्तस्य।' __ आचार्य जिनदासगणि ने आवश्यक चूर्णि में द्रव्य वन्दन और भाव वन्दन पर दो कथानक दिए हैं। एक कथानक भगवान् अरिष्टनेमि के समय का है। भगवान् नेमि के दर्शनों के लिए वासुदेव कृष्ण और उनके मित्र वीरककौलिक पहुँचे। श्रीकृष्ण ने भगवान् नेमि और अन्य साधुओं को बड़े ही पवित्र श्रद्धा एवं उच्च भावों से वन्दन किया। वीरककौलिक भी श्रीकृष्ण की देखादेखी उन्हें प्रसन्न करने के लिए पीछे-पीछे वन्दन करता रहा। वन्दन-फल के प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान् नेमि ने कहा कि- 'कृष्ण! तुमने भाव वन्दन किया है, अतः तुमने क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त की और तीर्थंकर गोत्र की शुभ प्रकृति का बंध किया। इतना ही नहीं, तुमने सातवीं, छठी, पाँचवीं और चौथी नरक का बंधन भी तोड़ दिया है। परन्तु वीर ने केवल देखा-देखी भावनाशून्य वन्दन किया है, अतः उसका वन्दन द्रव्यवन्दन होने से निष्फल है। उसका उद्देश्य तुम्हें प्रसन्न करना है और कुछ नहीं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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