Book Title: Vair aur Vairi Author(s): Publisher: Z_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf View full book textPage 2
________________ TKE "तेरे भाई को मारकर हत्यारा भाग गया और दम चौकन्ना हो जाता। गाँव-गाँव, नगर-नगरमा तू कायरों की तरह आँसू बहा रहा है ? अब तक घूमता था कुलपुत्र । उसके सामने खून से लथपथ : । हार-जीत तो अखाड़े के खेल की हार-जीत थी। भाई का शव बार-बार आ जाता। कभी सोचता, तेरे क्षात्र तेज की कसौटी तो अब है पुत्र ! उठकर 'जरूरी तो नहीं कि मैं शत्र को खोज ही लूँ । खड़ा हो जा । अपने भ्रातृहन्ता का वध मेरे सामने यदि नहीं खोज पाया तो आत्मदाह कर लूंगा। लाकर करेगा, तब मेरी छाती ठण्डी होगी। क्या क्षत्रिय जब अपनी प्रतिज्ञा पूरी नहीं कर पाते तो मेरा दूध तुने यही दिखाने के लिए पिया था ?" आत्मदाह ही करते हैं । लेकिन मैं उसे ढूंढ़कर ही ___ "माँ, अब कुछ मत कहो।" छोटा कुलपुत्र रहूँगा। धरती का चप्पा-चप्पा छान डालूंगा।' उठकर खड़ा हो गया-"मेरे भाई को धोखे से मार सचमुच, कलपूत्र ने चप्पा-चप्पा छानना ही शुरू कर भागने वाला कहीं तो मिलेगा। वह धरती में कर दिया। जंगल, बाग-बगीचे, खेत-खलिहान, छिपा होगा तो मैं धरती खोदकर उसे यहीं लाऊँगा। मरघट, मन्दिर, मद्यशालाएँ, जुए के अड्डे, चोरों उसे बांधकर तेरे चरणों में डाल दूंगा और तेरे की पल्लियां, नदी के धार-कछार, खाई-खन्दक, सामने ही उसका वध करूंगा। जहाँ मेरे भाई का पर्वत-टीले सबको देखता-छानता वह रात-रात खून बहा है, उसी स्थान पर उसका खून बहाऊंगा। भर भटकता रहता था। बीतते-बीतते इस अभियान || माँ, मैं जाता हूँ। अब तभी लौटूंगा, जब अपनी में कूलपूत्र को बारह वर्ष बीत गए। इन बारह प्रतिज्ञा पूरी कर लूँगा। __ वर्षों में वह युवा से प्रौढ़-जैसा बन गया था । दाढ़ी मां, कुलपुत्र को जाते हुए देखती रही। उसे बढ़ गई थी और थक भी गया था, पर निराश नहीं अपने दूध पर विश्वास था। वह जानती थी कि हुआ था। मेरा पुत्र भाई के हत्यारे को लेकर ही लौटेगा। बारह वर्ष बाद का एक दिन-चाँदनी रात । कुलपुत्र चला गया। नगरवालों ने बड़े कलपुत्र एक टीले के नीचे कुलपुत्र ने एक व्यक्ति को देखा। की अन्त्येष्टि की। कुछ लोगों ने टिप्पणी की- सन्देह हुआ तो लपककर उसके पास पहुँचा । कुल-टू "आवेश में भाई को अग्नि भी नहीं दे गया।" पुत्र को देखते ही संदिग्ध व्यक्ति भागने लगा। ___ "क्षत्रिय का क्रोध ऐसा ही होता है ।" दूसरे ने सन्देह निश्चय में बदल गया और कुलपुत्र पूरा (६ सन टिप्पणी की-"बात पर मरना क्षत्रिय ही जानते बल लगाकर दौड़ने लगा। थोड़ी ही देर में उसने अपने शत्रु को दबोच लिया। वह गिड़गिड़ाने । x लगाकुलपुत्र को न नींद की चिन्ता थी, न भोजन 'मुझे मत मारो, मैं तुम्हारी शरण में हूँ।' की भूख । उसकी आँखें शत्रु को खोजने में लगी थीं। 'अभी तुझे नहीं मारूंगा।' कुलपुत्र ने कहाजो भी व्यक्ति उसे संदिग्ध दिखता, वह झपटकर 'तुझे मैं वहीं ले जाकर मारूंगा, जहाँ मेरे भाई ने उसके पास पहुँच जाता और पहचान कर कहता- दम तोड़ा था।' ___ "जाओ, जाओ, तुम वह नहीं हो।" ___ कुलपुत्र ने अपने सिर की पगड़ी खोल ली और उसकी इन हरकतों से उसे लोग पागल सम- उसी से भ्रातहन्ता के हाथ-पैर बाँधकर पीठ पर झते थे । यदि गहराई से सोचें तो वह प्रतिशोध ने लाद लिया और चल दिया गाँव की ओर। रातपागल ही बना दिया था। वक्ष के मूल में बैठा- भर चलता रहा। दिन में भी रुका नहीं। बदला बैठा ऊंघता रहता और पत्ता भी खड़कता तो एक लेने की तीव्रतम भावना ने उसकी चाल बढ़ा दी। सप्तम खण्ड : विचार-मन्थन 60 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International www.jainelibrary.org ५०६ For Private & Personal Use OnlyPage Navigation
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