Book Title: Vair aur Vairi Author(s): Publisher: Z_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf View full book textPage 1
________________ कहानी १. वैर और वैरी क्रोध जब स्थायित्व ग्रहण कर लेता है तो वैर का रूप धारण कर लेता है । क्रोध की अवधि सीमित होती है, पर वैर पीढ़ी-दर-पीढ़ी, जन्म-प्रतिजन्म तक भी चलता है । क्रोध घातक है तो वैर महाघातक है । अचार्यं रामचन्द्र शुक्ल ने वैर को क्रोध का अचार या मुरब्बा उसके स्थायित्व को लक्ष्य करके कहा है । कुलपुत्र का भ्रातृवियोग क्रोध में और क्रोध वैर में बदल गया था । उसने प्रतिज्ञा कर डाली - जब तक मैं अपने भ्रातृहन्ता का वध नहीं कर लूंगा, तब तक घर नहीं लौटंगा । क्षत्रियों के स्वभाव में यह उक्ति घुलमिल गई है - जिनके शत्रु जीवित डोलें, तिनके जीवन को धिक्कार । सन्त जन भले ही यह कहते हों कि "बदला" अमानवीय शब्द है | पर क्षत्रियों का मानना यह है कि जब तक शत्रु से बदला न ले लिया जाए, तब तक क्षत्रिय क्षत्रिय नहीं । यह कुलपुत्र भी तो क्षत्रिय था, तो फिर अपने भाई को मारने वाले से बदला लेने की प्रतिज्ञा क्यों न करता ? किसी नगर में एक क्षत्रिय परिवार रहता था । घर में चार प्राणी थे- पति-पत्नी और दो बच्चे । दोनों भाइयों में तीन वर्ष का अन्तर था । बड़ा भाई पाँच वर्ष का था और छोटा दो का, तभी इनके पिता का देहान्त हो गया । असमय में ही ठकुरानी विधवा और बालक अनाथ हो गए। फिर भी ठकुरानी ने हिम्मत नहीं हारते। गुजारे के लिए उसके पति की छोड़ी गई पर्याप्त सम्पत्ति थी । उसने दोनों पुत्रों के लालन-पालन और शिक्षा का कर्तव्य पूरी सप्तम खण्ड : विचार मन्थन Jain Education International निष्ठा से निभाया। दोनों भाई लाठी चलाने से लेकर, भाला, खड्ग आदि शस्त्रों का संचालन भी बड़ी कुशलता से करते थे । दोनों मल्लविद्या में भी पारंगत थे । शत्रु की ललकार सुनकर भाइयों की भुजाएँ फड़क उठती थीं । माँ को अपने पुत्रों पर गर्व था । दोनों भाई जब मल्लयुद्ध करने अखाड़े में जाते थे तो माँ उन्हें आशीर्वाद देते समय एक ही बात कहती " मेरे दूध की लाज रखना, पिता का नाम ऊँचा करना और यह सिद्ध करके आना कि क्षत्रियपुत्र मरना जानते हैं, डरना नहीं ।" दोनों भाई, जिससे भी भिड़े, उसे पराजित करके ही आये । एक बार बड़े भाई के एक प्रतिद्वन्द्वी ने, जब वह घर लौट रहा था, पीछे से उस पर वार किया और भाग गया । छोटा भाई तो हक्का-बक्का रह गया । उसकी चीख सुनकर माँ दोड़ी आई | पास-पड़ोस के लोग भी इकट्ठे हो गए । माता और भाई का करुण क्रन्दन देखा नहीं जाता था । ठकुरानी पछाड़ खा रही थी। भाई छाती पीटकर रुदन कर रहा था । संसार की हर वस्तु क्षणिक है । वियोग का शोक भी समय के साथ घटता है । रोते-रोते तीन चार घड़ी का समय बीता तो माता को पुत्र IT और अनुज को अग्रज का शोक कुछ कम हुआ - कुछ स्थिर हो गया । अब वे परिस्थिति पर विचार करने लगे । ठकुरानी सिंहनी-सी उठकर खड़ी हो गई और अपने पुत्र को धिक्कारने लगी साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ For Private & Personal Use Only ५०५ www.jainelibrary.orgPage Navigation
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