Book Title: Vaigyanik Aaine me Jain Dharm
Author(s): Rajiv Prachandiya
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf

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Page 3
________________ संचालित यन्त्र के सिद्धान्त के अनुरूप ही है। जैन धर्म ने अणु-सिद्धान्त को सर्वप्रथम माना और उसका सूक्ष्म विवेचन किया है। उसके अनुसार कर्मवाद इस अणु सिद्धान्त पर अवलम्बित है। जैन धर्म की इस अणु सम्बन्धी मान्यता को वैज्ञानिक अत्यन्त प्राचीन तथा विज्ञान सम्मत मानते हैं।' आत्मा और अणु की गति क्रिया का विश्लेषण करते हुए जैन आचार्यों ने एक उदासीन माध्यम के रूप में धर्म द्रव्य का निरूपण किया। धर्म द्रव्य पदार्थ मात्र की गति का निष्क्रिय माध्यम, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श रहित अखण्ड सत्ता रूप है। जैन आगम में धर्म द्रव्य को धर्मास्तिकाय भी कहा गया है। धर्मास्तिकाय वर्ण, गन्ध रस, स्पर्श रहित, अरूपी, अजीव, शाश्वत, अवस्थित लोक व्याप्त द्रव्य है। धर्मास्तिकाय न स्वयं चलती है और न किसी को चलाती है। वह तो केवल गति शील जीव व पुद्गल की गति का प्रसाधन है। मछलियों के लिए जल जैसे गति में अनुग्रह शील है उसी प्रकार जीव पुद्गलों के लिए धर्म द्रव्य है। यही बात ईथर के रूप में विज्ञान कहता है । ईथर की स्थिति को समझने के लिए समय-समय पर विविध प्रयोग हुए हैं । अन्त में यह निष्कर्ष निकला कि धर्म द्रव्य या ईथर अभौतिक, अपरमाणविक, अविभाज्य, अखण्ड, आकाश के समान व्याप्त, अरूप, गति का अनिवार्य माध्यम और अपने आप में स्थिर है। वास्तव में जो धर्म द्रव्य है, वही ईथर है और जो ईथर है वही धर्म द्रव्य । पृथ्वी किस आधार पर टिकी है। इस सम्बन्ध में अनेक धर्म सन्तों ने विभिन्न उत्तर दिये हैं किन्तु इस संदर्भ में इनके सारे दृष्टिकोण भौतिक युग में कल्पना मात्र रह गये हैं । परन्तु जैन आगमों की मान्यता इस सम्बन्ध में भी वैज्ञानिक है। उसके अनुसार इस पृथ्वी के नीचे धनोदधि (जमा हुआ पानी) है, उसके नीचे तनुवात है और तनुवायु के नीचे आकाश स्वप्रतिष्ठित है, उसके लिए किसी आधार की आवश्यकता नहीं है। जैन धर्म जीवों का सूक्ष्म तथा वैज्ञानिक वर्णन करता है । वनस्पति, पृथ्वी, जल, अग्नि में जीव मान्यता भी जैन धर्म में अनूठी और आदिकालीन है। उसके अनुसार प्रत्येक जीव का स्वतन्त्र अस्तित्व है। जैन धर्म में दो प्रकार के जीवों--बस और स्थावर का वर्णन है । स्थावर वे जीव होते हैं जिनमें केवल स्पर्शन इन्द्रिय होती है। अर्थात् केवल स्पर्श करने की शक्ति उनमें विद्यमान रहती है। जैसे पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, और वनस्पति । त्रसजीव दो से पांच इन्द्रियों (स्पर्शन, रसना, प्राण, चक्षु, तथा कर्ण) वाले होते हैं उदाहरणार्थ शंख, सीप, चीउटी, मक्खी, मच्छर, कुत्ता, बिल्ली तथा मनुष्यादि । इतना ही नहीं जैन दर्शन ने तो वनस्पति काय के जीवों की आयु को भी स्पष्ट किया है उसके अनुसार इन वनस्पतिकाय के जीवों की उत्कृष्ट दशा हजार वर्ष की आयु होती है। और अन्तर्मुहुर्त की जघन्य आयु स्थिति है। बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में प्रसिद्ध भारतीय वैज्ञानिक डा० जगदीश चन्द्र बसु ने अपने विभिन्न प्रयोगों द्वारा वनस्पति में जीवन है इस बात की पुष्टि कर सारे विश्व को आश्चर्य में तो डाल ही दिया है साथ ही जैन धर्म को इस संदर्भ में विज्ञान सम्मत बताया। श्री साइकस ने भूमि की एक क्यूबिक इंच भाग में पांच मिलियन जीवित कीटाणु सिद्ध किये हैं। इस प्रकार विज्ञान ने समय-समय पर अनेक वैज्ञानिक यन्त्रों का आविष्कार कर यह स्वीकार किया जैन धर्म कोरा काल्पनिक नहीं अपितु एक वैज्ञानिक धर्म है। यह धर्म वास्तव में प्रामाणिकता पर आधारित है । जैन धर्म सर्वांगीण दष्टिकोण को लेकर चलता है। यह दृष्टिकोण विश्व के दर्शनों, धर्मों, सम्प्रदायों एवं पन्थों का समन्वय १. "इन्साइक्लोपीडिया ऑफ रिलीजन एंड ईथिक्स-भाग २, पृष्ठ १६६-२००, डॉ० जैकोबी २. "धम्मत्थिकाएक भन्ते कति वण्णे कति रसे कति फासे ? गोपमा । अवण्णे अगन्धे अरसे अफासे अरूबी अजीवे सासए अट्ठिए लोकदब्वे"-भगवतीशतक, २, उद्देशक १० ३. "न च गच्छतिधर्मास्ति को गमनं न करोत्यभ्य द्रव्यस्य । भवति गतेः प्रसरो, जीवानां पुदगलानां च ॥ उदकं यथा मत्स्यानां, गमनानुग्रहकरं भवति लोके । तथा जीवपुद्गलानां, धर्मद्रव्य विजानीहि ।” — पच्चास्तिकाय, ६५-६२ ४. भगवतीसूत्र, श० १, उ०६ ५. 'संसारत्था उजे जीवा, दुविहा ते वियाहिया। तसायथावराचेव, थावरा तिविहातहि ।।" - उत्तराध्ययनसूत्र, अध्याय ३६, गाथा ६८ ६. "दस चेव सहस्साई, वासाणुक्कोसिया भवे । वणफफईण अखण्ड तु, अन्तोमुहुन्तं जहन्नगं ।।" -उत्तराध्ययनसूत्र, अध्याय ३६ गाथा १०२ 1. "We find that the soil is life and that a living soil contains a mass of micro-organic cxistence the earth worm the fuongi and the micro-organisms, we learn that there is a minimum of five millions of these denizens to the cubic inch of living soil." - J. Sykes the Sower, (Winter 1952-53) ७६ आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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