Book Title: Vadvichar Author(s): Sukhlal Sanghavi Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf View full book textPage 4
________________ थोड़ा विचारभेद प्रकट किया कि, एकमात्र विजिगीषु वादी या प्रतिवादी के होने पर भी चतुरत कथा का सम्भव है। उन्होंने यह विचार भेद सम्भवतः अकलङ्क या विद्यानन्द आदि पूर्ववर्ती तार्किकों के सामने रखा है। इस विषय में प्राचार्य हेमचन्द्र का मानना अकलङ्क और विद्यानन्द के अनुसार ही जान पड़ता है-प्र० मी० पृ० 63 / ब्राह्मण बौद्ध, और जैन सभी परम्पराओं के अनुसार कथा का मुख्य प्रयोजन तत्त्वज्ञान की प्राप्ति या प्राप्त तत्त्वज्ञान की रक्षा ही है। साध्य में किसी का मतभेद न होने पर भी उसकी साधनप्रणाली में अन्तर अवश्य है, जो पहिले भी बताया जा चुका है। संक्षेप में वह अन्तर इतना ही है कि जैन और उत्तरवर्ती बौद्ध तार्किक छल, जाति आदि के प्रयोग को कभी उपादेय नहीं मानते। वादी, प्रतिवादी, सभ्य और सभापति इन चारों श्रङ्गों के वर्णन में तीनों परम्पराओं में कोई मतभेद नहीं है। प्राचार्य हेमचन्द्र ने जो चारों श्रङ्गों के स्वरूप का संक्षिप्त निदर्शन किया है वह पूर्ववर्ती ग्रन्थों का सार मात्र है / जैन परम्परा ने जब छलादि के प्रयोग का निषेध ही किया तब उसके अनुसार जल्प या वितण्डा नामक कथा वाद से भिन्न कोई न रही / इस तत्त्व को जैन तार्किकों ने विस्तृत चर्चा के द्वारा सिद्ध किया / इस विषय का सबसे पुराना ग्रन्थ शायद कथात्रयभङ्ग हो, जिसका निर्देश सिद्धिविनिश्चयटीका (पृ० 289 A) में है। उन्होंने अन्त में अपना मन्तव्य स्थिर किया कि-जल्प और वितण्डा नामक कोई वाद से भिन्न कथा ही नहीं, वह तो कथाभास मात्र है। इसी मन्तव्य के अनुसार प्राचार्य हेमचन्द्र ने भी अपनी चर्चा में बतलाया कि वाद से भिन्न कोई जल्प नामक कथान्तर नहीं, जो ग्राह्य हो / ई. 1636] [प्रमाण मीमांसा प्रमाणसं० परि० 6 / 'सिद्धो जिगीषतो वादः चतुरङ्गस्तथा सति ।'-तत्त्वार्थश्लो पृ० 277 / 1 देखो-चरकसं० पृ. 264 / न्यायप्र० पृ० 14 / तत्त्वार्थश्लो० पू० 280 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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