Book Title: Vadvichar Author(s): Sukhlal Sanghavi Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf View full book textPage 3
________________ २२३ बौद्ध विजिगीषु, नैयायिक विजिगीषु से भिन्न प्रकार का सम्भव नहीं, पर जब से बौद्ध परम्परा में छल आदि के प्रयोग का निषेध होने के कारण जल्पकथा नामशेष हो गई और वादकथा ही अवशिष्ट रही तब से उसमें अधिकारिद्वविध्य का प्रश्न ही नहीं रहा, जैसा कि जैन परम्परा में। जैन परम्परा के अनुसार चतुरङ्गवाद के अधिकारी विजिगीषु हैं। पर न्याय वैद्यक-परम्परासम्मत विजगीषु और जैनपरम्परासम्मत विजिगीषु के अर्थ में बड़ा अन्तर है। क्योंकि न्याय-वैद्यक परम्परा के अनुसार विजिगीषु वही है जो न्याय से या अन्याय से, छल श्रादि का प्रयोग करके भी प्रतिवादी को परास्त करना चाहे, जब कि जैनपरम्परा विजिगीषु उसी को मानती है जो अपने पक्ष की सिद्धि करना चाहे, पर न्याय से; अन्याय से छलादि का प्रयोग करके कमी नहीं। इस दृष्टि से जैनपरम्परासम्मत विजिगीषु असूयावान् होकर भी न्यायमार्ग से ही अपना पक्ष सिद्ध करने का इच्छुक होने से करीब-करीब न्याय-परम्परासम्मत तत्त्वबुभुत्सु की कोटि का हो जाता है । जैन परम्परा ने विजय का अर्थ-अपने पक्ष की न्याय्य सिद्धि ही किया है, न्याय-वैद्यक परम्परा की तरह, किसी भी तरह से प्रतिवादी को मूक करना नहीं । ___ जैन परम्परा के प्राथमिक तार्किको १ ने, जो विजिगीषु नहीं हैं ऐसे वीतराग व्यक्तियों का भी वाद माना है । पर वह वाद चतुरङ्ग नहीं है। क्योंकि उसके अधिकारी भले ही पक्ष-प्रतिपक्ष लेकर प्रवृत्त हों पर वे असूयामुक्त होने के कारण किसी सभापति या सभ्यों के शासन की अपेक्षा नहीं रखते। वे आपस में ही तत्त्वबोध का विनिमय या स्वीकार कर लेते हैं। जैन परम्परा के विजिगीषु में और उसके पूर्वोक्त तत्त्यनिर्णिनीषु में अन्तर इतना ही है कि विजिगीषु न्यायमार्गसे चलनेवाले होने पर भी ऐसे असूयामुक्त नहीं होते जिससे वे बिना किसी के शासन के किसी बात को स्वतः मान लें जब कि तत्त्वनिर्णिनीषु न्यायमार्ग से चलनेवाले होने के अलावा तत्त्वनिर्णय के स्वीकार में अन्य के शासन से निरपेक्ष होते हैं । इस प्रकार चतुरङ्गवाद के वादी प्रतिवादी दोनों विजिगीषु होने की पूर्व प्रथा रही, इसमें वादि देवसूरि ने (प्रमाणन० ८. १२-१४) १ 'पराधिगमस्तत्रानुद्भवद्रागगोचरः। जिगीषुगोचरश्चेति द्विधा शुद्धधियो विदुः ।। सत्यवाग्भिः विधातव्यः प्रथमस्तत्त्ववेदिभिः । यथाकथञ्चिदित्येष चतुरङ्गो न सम्मतः ।।-तत्त्वार्थश्लो० पृ०२७७ । २ 'वादः सोऽयं जिगीषतोः।-न्यायवि० २. २१२ । 'समर्थवचनं वादः प्रकृतार्थप्रत्यायनपरं साक्षिसमक्ष जिगीषतोरेकत्र साधनदूषण वचनं वादः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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