Book Title: Uttaradhyayanani
Author(s): Nemichandracharya
Publisher: Pushpachandra Kshemchandra Balapurwala
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| नियवायाए अब्भुवगयपवज्जो गच्छामि गेहूं ? ति जाओ भावसमणो । अधिई काऊण गया वयंसथा । ते वि उवस्यं गया । सेहेण भणियं भयवं ! अन्नत्थ वच्चामो, उप्पवाविस्संति मम बंधुणो साहू य अणत्थं पाविस्संति, अप्पविइज्जया चैव गच्छामो, महंतं साहुवंदं नज्जइ वच्चमाणं । सूरिणा भणियं — पंथं पडिलेहेहि जेण रयणीए वच्चामो । सो वि पंथं | पडिलेहिऊण आगओ । रयणीए णिग्गया । 'पुरओ वच्चसु' त्ति भणिओ सेहो गच्छइ अग्गओ । चंडरुद्दो वि रयणीए अपेच्छंतो खाणुए पक्खलिओ वेयणावसेण 'हा दुट्ठसेह ! न सोहणो मग्गो पडिलेहिओ' त्ति रूसिएण मत्थए दंडणं आहओ, सिरं फोडियं तहा वि सम्मं सहइ, चिंतइ य - अहो ! मे अहन्नया जेण एस सुहमच्छंतो नियसाहुमज्झे । वसणभायणं कओ त्ति, कहमेयं सम्ममक्खलियं नेमि ?, कहमेयस्स समाहिं उप्पाएमि ? -त्ति पयत्तेण गच्छंतस्स सुहभावणोवगयस्स केवलनाणमुत्पन्नं । पहाया रयणी । दिट्ठो रुहिरोरालियसिरो । तओ पञ्चागयदृढसंवेगो 'अहो ! एयस्स सेहस्स वि खंती, अहो ! मम चिरपवइयस्स वि पत्तगणिपयस्स वि उक्कडरोसय' त्ति एमाइभावणापरिगओ अप्पानं निंदिउमारद्धो सूरी, उप्पण्णं च केवलं नाणं ॥ एवं सुशिष्यचण्डमपि मृदुं करोति गुरुमिति सूत्रार्थः ॥ १३ ॥ कथं पुनर्गुरुचित्तमनुगमनीयम् ? इत्याह
नाऽपुट्ठो वागरे किंचि, पुट्ठो वा नालियं वए । कोहं असचं कुठेज्जा, धारिजा पियमप्पियं ॥ १४ ॥
व्याख्या—न 'अपृष्टः' कथमिदमित्याद्यजल्पितो गुरुणेति गम्यते 'व्यागृणीयात्' वदेत् तथाविधकारणं विना 'किश्चित्' | स्तोकमपि, पृष्टो वा न 'अलीकम्' अनृतं वदेत्, कारणान्तरेण गुरुभिरतिनिर्भत्सितोऽपि न तावत्क्रुध्येत्, कथञ्चिदुत्पन्नं वा क्रोधम् 'असत्यं' तदुत्थविकल्पविफलीकरणेन 'कुर्वीत' विदध्यात् तद्विपाकमालोचयन्, यथा — “क्रोधः परितापकरः, | सर्वस्योद्वेगकारकः क्रोधः । वैरानुषङ्गजनकः क्रोधः क्रोधः सुगतिहन्ता ॥ १ ॥” उदाहरणश्चाऽत्र — कस्सइ कुलपुत्तयस्स

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