Book Title: Uttaradhyayan gita aur Dhammapad Ek Tulna Author(s): Udaychandra Shastri Publisher: Z_Lekhendrashekharvijayji_Abhinandan_Granth_012037.pdf View full book textPage 3
________________ लेता है।६ तब वह पापरूप दु:ख से कैसे मुक्त हो सकेगा? जब तक बाह्य वस्तुओं के प्रति मोह रहेगा, तब तक दु:ख रहेगा। गीता में लिखा है ये हि संस्पर्शजा भोगा द:खयोनय एव ते ।५।२२।। अर्थात जो इन्द्रियों और विषयों के संयोग से उत्पन्न होने वाले हैं सब भोग ये नि:संदेह दु:ख के कारण हैं। बुद्धवग्ग में दुःख को चार भागों में बाँट दिया है(१) दु:ख (२) दुःख की उत्पत्ति (३) दु:खनिवृत्ति (४) दु:खनिवृत्ति के उपाय ये चार आर्य सत्य भी कहे जाते हैं। दु:ख-जन्म, जरा, मरण, शोक-परिदेव, दौर्मनस्य, (रोना-पीटना दु:ख है, पीड़ित होना दु:ख है), चिन्तित होना दु:ख है, परेशान होना दु:ख है, इच्छा की पूर्ति न होना दु:ख है, ये सब दु:ख हैं और सब दु:खों का कारण तृष्णा है। इसलिए तृष्णा को जड़ से खोदने का उपदेश दिया है तं वो वदामि भदं वो यावन्तेत्थ समागता । तण्हाय मूलं खणथ उसीरत्थो व वीरणं ।। गीता में दु:ख के कारण को एक पंक्ति में कह दिया "जन्ममृत्युजराव्याघिदुःखदोषानुदर्शनम् ।" गीता-अ.० १३२८ उत्तराध्ययन में इसी भाव को इस रुप में व्यक्त किया है कि जन्म दु:खरुप है, बुढ़ापा दु:खरुप है, रोग और मृत्यु ये सभी दु:खरुप हैं आश्चर्य है कि सारा संसार दु:खरूप है। दु:ख का मूलभूत कारण तृष्णा है।९।। ष्टिकोणों से द:ख के कारणों को उपस्थित कर द:ख बतलाया. पर द:ख से छटने का उपाय क्या है? इससे पूर्व दु:ख-सुख की वास्तविकता को समझ लेना आवश्यक होगा। "यदिष्टं तत्सुखं प्राहुः द्वेष्यं दु:खमिहेष्यते"- जो कुछ हमें इष्ट प्रतीत होता है, वही सुख है और जिससे हम द्वेष करते हैं अर्थात् जो हमें रुचिकर नहीं, वह दु:ख है। दु:ख संसार का कारण है और सुख आत्मानंद का कारण। आत्मानंद से ही परमात्मा की प्राप्ति होती है। जब तक व्यक्ति राग-द्वेष की समाप्ति नहीं कर देता, तब तक वह सुख को प्राप्त नहीं कर पाता है। इसलिए राग-द्वेष का नाश करें।१० यही सुख का साधन है। परन्तु जो मनुष्य दूसरों को दु:ख देने से अपने सुख की इच्छा करता है, वह वैर के संसर्ग में पड़ा हुआ वैर से नहीं छूटता। ऐसा मनुष्य जो कर्तव्य है उसे छोड़ देता है, और अकर्तव्य को करने लगता है।११ "गीता रहस्य में तिलक ने सुख-दुख के विषय में लिखा है "चाहे सुख हो या दु:ख, प्रिय लगे अथवा अप्रिय, परन्तु जो कार्य जिस समय जैसे आ पडे, उसे उसी समय मन को निराश न करते हुए (कर्तव्य को न छोडते हुए) करते जाओ।.... संसार में अनेक कर्तव्य ऐसे हैं, जिन्हें दु:ख सहकर भी करना पड़ता है।१२" "न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम्।"५।२०। सुख पाकर हर्षित नहीं होना चाहीए और दुःख से खिन्न नहीं होना चाहीए। क्योंकि आत्मा ही सुख-दु:ख को उत्पन्न करने वाली और यही दु:ख को क्षय कर अनंतसुख को प्राप्त करने वाली है। श्रेष्ठ आचार वाली आत्मा मित्र और दुराचार वाली आत्मा शत्रु है।१३ (तुममेव मित्तं तुममेव सत्तु) इसीलिए दु:ख के जो मूलभूत कारण है, उन्हें नाश कर देना ही सुख का साधन है। बुध्धने पापवग्ग में उपदेश दिया है कि "मनुष्य कल्याणकारी कार्य करने के लिए ऐसे कारणों को जुटाये जिससे सुख की उपलब्धि हो सके और दु:खरुप संसार से शीघ्र ही मुक्त हो सके २३६ अनशन महान तप हैं। यह तप केवल अन्न जल के त्याग में ही समाप्त नहीं होता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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