Book Title: Uttaradhyayan gita aur Dhammapad Ek Tulna Author(s): Udaychandra Shastri Publisher: Z_Lekhendrashekharvijayji_Abhinandan_Granth_012037.pdf View full book textPage 2
________________ आत्मा को परमात्मरूप स्वीकार कर परमात्मा में लीन होने को कहती है। जो परमात्मा में लीन हो जाता है, परमात्मस्वरूप को प्राप्त कर लेता है। उत्तराध्ययन में प्रथम विनयश्रुत में आत्मार्थी के लिए (मुक्ति के साधक के लिए) कर्तव्यों की ओर प्रेरित किया गया है। __ आणाणिद्देसकरे गुरुणमुववायकारए । इंगियागारसंपण्णे, से विणीए त्ति च ॥ गीता और धम्मपद भी कर्तव्यों का बोध कराते हैं। गीता का प्रथम-द्वितीय अध्याय बोध को संकेत करते हैं। जिस समय अर्जुन शोकयुक्त हो जाता है तब उसे अपनी आत्मा का बोध कराया जाता है कि हे अर्जुन! आत्मा का कभी वध नहीं किया जा सकता है। इसलिए सम्पूर्ण भूतप्राणियों के लिए तू शोक करने योग्य नहीं है और अपने धर्म को देखकर भी तू भय करने के योग्य नहीं है, क्योंकि धर्मयुक्त युद्ध से बढ़कर दूसरा कोई कल्याणकारक कर्तव्य क्षत्रिय के लिए नहीं हैं। आगे कर्मफल का निषेध किया है। कर्म करने का अधिकार प्रत्येक व्यक्ति को है, फल की इच्छा का नहीं। कर्मफल आसक्ति का कारण होता है। "कम्मसंगेहिं सम्मूढा, दुक्खिया बहुवेयणा।"३ अर्थात् कर्मों के सम्बन्ध से मूढ़ प्राणी दु:खी और अत्यन्त वेदना को पाते हैं। धम्मपद के पण्डितवर्ग में व्यक्ति को क्या करना चाहिए, क्या नहीं? इसका उल्लेख बहुत ही मार्मिक रुप से प्रस्तुत किया है। निधीनं व पवत्तारं यं पस्से वचदस्सिनं । निग्गय्हवादि मेधाविं तादिसं पण्डितं भजे ॥ तादिसं भजमानस्य सेय्यो होति न पापियो ।।१।। अर्थात् जो निधियों के बतलाने के समान वर्जनीय बातों को बतलाने वाला है, जो निगृह्यवादी और मेधावी है-ऐसे, इस प्रकार के बुद्धिमान का साथ करना चाहिए। ऐसे मनुष्य का साथ करने वाले को पुण्य मिलता है, पाप नहीं। तथा 'धम्मपीती सुखं सेति विप्पसन्नेन चेतसा' अर्थात् धर्म का पालन करनेवाला प्रसन्नचित्त होकर सुख से सोता है। उत्तराध्ययन में धर्म के आश्रय रहने वाले को सुखदायक और महान् निर्वाण गुणों की प्राप्ति होती है। "सुहावहं धम्मधुरं अणुत्तरं, धारेज निव्वाणगुणावहं महं।" २०६६।। और कर्मों में आसक्त जीव के लिए कहा है कि जो अति आसक्त होता है वह जंगल के तालाब के ठंडे पानी में पड़े हुए और मकर द्वारा ग्रसे हुए भैंसे की तरह अकाल में ही मृत्यु पाता है।' दु:ख और दु:ख के कारण-सभी जीव सुख चाहते हैं, तथा दु:ख से डरते हैं। पर दुःख से बचने का उपाय नहीं जानते। इसलिए जन्मजन्मांतर से इस संसार में जन्म-मरणरुप दु:ख को भोग रहे हैं। इसका मूल कारण अज्ञान दशा है। अज्ञान के कारण ही भौतिक पदार्थों की ओर सुख मानकर दौड़ता रहता है। इसकी इस तृष्णा का कहीं अंत नहीं। अज्ञानी सोचता है कि "जणेण सद्धिं होक्खामि, इह बाले पगठभइ।" अर्थात् जो दूसरों का हाल होगा वह मेरा भी होगा" इस प्रकार सोचने वाले "लुप्पंति बहुसो मूढा, संसारम्मि अणंतए।" अनंत संसार में ही भटकते रहते हैं। उनके द:खों का अन्त करने वाली संसार की कोई भी वस्तु ऐसी नहीं हैं। यदा च पचति पापं अथ बालो दुक्खं निगच्छति। बालवग्ग-१०॥ अर्थात् जब पापकर्म का परिपाक होता है, तब वह मूर्ख मनुष्य दु:ख को प्राप्त होता है। धम्मपद में एक उदाहरण है कि "बूंद-बूंद गिरने से घड़ा भर जाता है और मनुष्य थोड़ा-थोड़ा भी संचय करते हुए पाप का घड़ा भर काल कब अट्टाहास करेगा और कब एक ही फुक में सब कुछ अदृष्य कर देगा. इस सत्य की किसी को भी अल्प मात्र खबर नहीं होती। २३५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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