Book Title: Uttaradhyayan Geeta aur Dhammapada Ek Tulna
Author(s): Udaychandra
Publisher: Z_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf

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Page 6
________________ 38 श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन प्रन्थ : सप्तम खण्ड 4 उत्त०३२१७६ से 84 के भाव को देखिये। 5 वही अ. 6 / 3 से 14 तक धम्मपद पापवग्गो ६-उदबिन्दु निपातेन उदकुम्भोपि पूरति / बालो पूरति पापस्स थोकं थोक पि आचिनं / / धम्मपद-गा० 161 : दुक्खं दुक्खसमुप्पादं दुक्खस्स च अतिक्कम / ____ अरियं चट्ठङ्गिकं मग्गं दुक्खूपसमागमिनं / / उत्तरा० अ० 16 गा०१६ : जम्मं दुक्खं जरा दुक्खं, रोगाणि मरणाणि य / अहो दुक्खो हु संसारो.......... / है वही-अ० 32 गा० 30 से 107 तक 10 उत्त०११-३७ "रागं दोसं य छिदिया।" 11 धम्मपद गा० 261-262 परदुक्खूपधानेन अत्तनो सुख मिच्छति / वेरसंसग्गसंसट्ठो वेरा सो न परिमुच्चति / / यं हि किच्चं अपविद्धं अकिच्चं पन करीयति / / 12 गीतारहस्य हिन्दी पृ० 112 प्रथम संस्करण 13 उत्त० अ० 20 / गा० 37 अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य / अप्पा मित्तममित्तं च, दुप्पट्ठिय सुपट्ठिओ / / 14 धम्मपद-गा०११६ / 15 तिलक-गीता रहस्य, पृ० 106-107 16 गीता अ०८/२८ 17 गीता अ० 16 श्लोक 1 से 5 तक देवी सम्पदा-अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः / दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम् / / अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशूनम् / दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम् / / तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता। भवन्ति संपदं दैवीमभिजातस्य भारत ! // दम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोध: पारुष्यमेव च / अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ ! संपदमासुरीम् / दैवी संपद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता। 18 डॉ. राधाकृष्णन-भारतीय दर्शन पृ० 531 / 16 धम्मपद-अरहन्तवग्गो गा०६० : “गतद्धिनो विसोकस्स विप्पमुत्तस्स सब्बधि / सब्बगन्धप्पहीनस्स परिलाहो न विज्जति / / " 20 उत्त०-अ०८ गा०५-६।। 21 धम्मपद-गा० 12 23 गीता अ० 2/64 24 गीता शांकरभाष्य-अ० ३/२४-"रागद्वेष प्रयुक्तो मन्यते शास्त्रार्थ अपि अन्यथा। रागद्वेषी ह्यस्य परिपन्थियो // " 25 गीता भाष्य-३/८ : नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः / 26 डॉ० महेन्द्र कुमार-जनदर्शन: कर्मवाद विशेष पठनीय है / 27 भारतीय दर्शन के मूल तत्व-पृ० 5 28 धम्मपद-गा० १-मनोपुब्बंगमा धम्मा मनोसेट्ठा मनोमया / मनसा चे पदुठेन भासति वा करोति वा / / ततो नं दुक्खमन्वेति चक्कं व बहतो पदं॥ 31 गीता ४/४०-"अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति / नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः / / 32 धम्मपद गा० 10 से 16 तक। 33 वही गा० 163 'दुल्लभो पुरिसाजो न सो सब्वत्थ जायति / ' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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