Book Title: Upmiti Bhav Prapancha Katha Author(s): Divyaprabhashreeji Publisher: Z_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf View full book textPage 5
________________ सुललिता बार-बार कथा सुनकर भी प्रतिबुद्ध न हुई, तब विशेष प्रेरणा के द्वारा उसे बड़ी मुश्किल - बोध ही पाता है । " प्रतिबुद्ध हो जाने से दोनों को आत्मबोध हो जाता है । और वे दोनों संसारावस्था को छोड़कर आर्हती-दीक्षा ग्रहण कर लेते हैं । 2 कालान्तर में, उत्कृष्ट तपश्चरण के प्रभाव से मोक्ष प्राप्त करते हैं । इस सार-संक्षेप में आचार्यश्री महाभद्रा और सुललिता के कथनों से स्पष्ट हो जाता है कि इस महाकथा में रहस्यात्मकता का गुम्फन कितना सहज और दुर्बोध है । इसी तरह के रहस्यात्मक प्रतीककथाचित्रों की भरमार उपमितिभव प्रपञ्चकथा में है । जो आठों प्रस्तावों में समाविष्ट, अनेकों अलग अलग कथाओं को पढ़ने पर और अधिक गहरा बन जाता है । हिंसा, असत्य, चौर्य / अस्तेय, और अपरिग्रह के साथ क्रोध, मान, माया, लोभ तथा मोह का आवेग जुड जाने पर स्पर्शन, रसना, घ्राण, श्रोत्र और चक्षु इन्द्रियों की अधीनता स्वीकार कर लेने से जो प्रतिकूल परिणाम जीवात्मा को भोगने पड़ते हैं, प्रायः उन समस्त परिणामों से जुड़ी अनेक कथाएं, इस महाकथा में अन्तर्भूत हैं । इन कथाओं का घटनाक्रम भिन्न-भिन्न स्थानों पर मैथुन भिन्न-भिन्न पारिवारिक परिवेषों में भिन्न-भिन्न पात्रों के द्वारा घटित / वर्णित किया है सिद्धर्षि ने । इस विभिन्नता को देखकर, सामान्य पाठक को यह निश्चय कर पाना मुश्किल हो जाता है कि इन अनेकों कथानायकों में से मुख्यकथा का नायक कौन हो सकता है ? वस्तुतः स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र के माध्यम से संसार को, जीवात्मा न सिर्फ देखता है, बल्कि उनसे अपना रागात्मक सम्बन्ध जोड़कर उसकी पुनः पुनः आवृत्ति करता रहता है । फलतः, सांसारिक पदार्थों के विकारों की छाप, उस पर १ वही - पीठबन्ध - श्लोक ६७-६८ वही - श्लोक ६५८-६६१ ३ ५५८ कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट Jain Education International इतनी प्रबल हो जाती है कि वह जन्म-जन्मान्तरों तक उनसे अपना सम्बन्ध तोड़ नहीं पाता । इससे जीवात्माओं को जो यातनाएँ सहनी पड़ती हैं, वे अकल्पनीय ही होती हैं । इसी तरह की जीवा - त्माओं के जन्म-जन्मान्तरों की कथाएँ, हर प्रस्ताव में संयोजित हैं । जिनके साथ, छाया की तरह, कुछ ऐसे जीवन-चरित भी संयोजित हुए हैं, जिन्हें न तो इन्द्रियों की शक्ति अपने अधीन बना पायी है, न ही हिंसा, चोरी-आदि दुराचारों के वशंवद वे बन सके हैं । क्रोध, मान, माया जैसे प्रबल मानata - विकारों का प्रभुत्व भी उन्हें पराजित नहीं कर पाया । स्पष्ट है कि सिद्धर्षि ने इन कथाओं में 'अशुभ' और 'शुभ' परिणामी जीवों के कथानक, चरितों की यह संयोजना, सिद्धर्षि की कल्पना से साथ-साथ संजोये हैं इस महाकथा में । द्विविध प्रसूत नहीं मानी जा सकती, क्योंकि, इस सबके संयोजन में उनका गहन दार्शनिक अभिज्ञान, चिन्तन और अनुभव, आधारभूत कारक रहा है । जिसे उनके रचना - कौशल में देखकर, यह माना जा सकता है कि सिद्धर्षि ने उन शाश्वत स्थितियों की विवेचना की है, जो जीवात्मा के अस्तित्व के साथ-साथ ही समुदभूत होती हैं। इसी द्विविधता बिन्दुओं के रूप में देख सकते हैं, जिनसे महाकथा को, हम इस महाकथा के प्रारम्भ में उन दो ध्रुवसिद्धर्षि ने 'कर्मपरिणाम' के अधीनस्थ दो सेनाका सूत्रपात होता है । इन बिन्दुओं की ओर, पतियों - 'पुण्योदय' और 'पापोदय' - के कार्यक्ष ेत्रों का निर्धारण करके, इन दोनों की प्रवृत्तियों का परिचय दे करके, पाठक का ध्यान आकृष्ट करना चाहा है । इन दोनों की क्रियापद्धति और अधिकारों में मात्र यह अन्तर है कि 'पुण्योदय' के कार्यक्षेत्र में जो जीवात्माएँ आ जाती हैं, उन्हें वह उन्नति की ओर अग्रसर करने के लिए प्रयासरत रहता है; जबकि, 'पापोदय' अपने अधिकार क्षेत्र २ वही - पृष्ठ ७५२-५३ साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 3 4 5 6 7