Book Title: Updeshmala ऊika
Author(s): Dharmdas Gani, Ramvijay Gani
Publisher: Shravak Hiralal Hansraj
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उपदेश-
मालाटी,
॥१२॥
पूर्वमेकदाहं यदायतने गता, तदा तत्रै विद्याधरविद्यावरीयुग्ममागतं, तदा मां दृष्ट्वा विद्याधरस्त्रिया चिंतितं यद्यत्यनुतरूयामिमां मदीयो नर्ता दृदयति तदैतपमोहितो नविष्यतीति ज्ञात्वा यथाहं न जानामि तथा मम कर्णे सैकां जटिकां बबंध. पश्चाद्यपूजार्थं गताई स्वात्मनः पुरुषवेशं दृष्ट्वा विस्मयमापना, सर्व शरीरमवलोकयंत्या मया कर्णे जटिका दृष्टा, सा ततो दूरतो मुक्ता, मूलरूपेण च जाता; पश्चात्सा जटिका मयाऽत्यादरेण गृहीता, सैव च मम पार्श्वे वर्तते. तत्पन्नावेण चाद्य पुरुषवेषं कृत्वाहं प्रासादात्समागतेति जटिकास्वरूपं दास्यै निवेदितं. अथ नीमनृपपुत्रेण बहवोऽप्युपायाः कृताः, परं कोऽपि न लगति, तदा तेन कमलवतीमातुरग्रे स्वान्निप्रायो निवेदितस्तयापि चिंतितं महानयं राजपुत्रोऽस्ति, अतो युक्तमनेन साई स्वपुत्रीविवाहकरणमिति विचार्य न निवेदितं, तेनापि प्रतिपन्नं, दितीयस्मिन्नेव दिने लग्नं गृहीतं. कमलवत्यापि तद् ज्ञातं, महदुःखमुत्पन्नं, अतो सा न भुंक्ते न शे- ते न जटपति न हसति, मनसि चिंतयति गत्वा तमेव यदं सोपालंन्नपूर्वकमाश्रयामि, नान्या मे गतिरिति विचिंत्य रात्रौ प्रचन्नं निर्गत्य यदायतनमागत्य तमेवमुपालनं ददाति. हे
॥१२॥
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