Book Title: Umaswati ka Kal Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_6_001689.pdf View full book textPage 5
________________ के उत्तरार्ध और चौथी शती के पूर्वार्ध में हुए होंगे, ऐसा माना जा सकता है। यह भी संभव है कि वे इस परम्परा भेद में कौडिण्य और कोट्टवीर के साथ संघ से अलग न होकर मूलधारा से जुड़े रहे हों। फलत: उनकी विचारधारा में यापनीय और श्वेताम्बर दोनों ही परम्परा की मान्यताओं की उपस्थिति देखी जाती है। वस्त्र-पात्र को लेकर वे श्वेताम्बरों और अन्य मान्यताओं के सन्दर्भ में यापनीयों के निकट रहे हैं। इन समस्त चर्चाओं से हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि उमास्वाति का काल विक्रम संवत् की तीसरी और चौथी शताब्दी के मध्य का है और इस काल तक वस्त्र-पात्र सम्बन्धी विवादों के बावजूद भी श्वेताम्बर, दिगम्बर और यापनीयों का अलग-अलग साम्प्रदायिक अस्तित्व नहीं बन पाया था। स्पष्ट सम्प्रदाय भेद, सैद्धान्तिक मान्यताओं का निर्धारण और श्वेताम्बर, दिगम्बर और यापनीय जैसे नामकरण पाँचवीं शताब्दी में या उसके बाद ही अस्तित्व में आये हैं। उमास्वाति निश्चित ही सम्प्रदाय भेद और साम्प्रदायिक मान्यताओं के निर्धारण के पूर्व के आचार्य हैं। वे उस संक्रमण काल में हुए हैं, जब श्वेताम्बर, दिगम्बर और यापनीय सम्प्रदाय और उनकी साम्प्रदायिक मान्यताएँ स्थिर हो रही थीं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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