Book Title: Umaswati ka Kal Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_6_001689.pdf View full book textPage 4
________________ उमास्वाति का काल में उपलब्ध होते हैं। यद्यपि आर्य शिव के सम्बन्ध में जो अभिलेख उपलब्ध हैं, उनके खण्डित होने से संवत् का निर्देश तो स्पष्ट नहीं है, किन्तु 'निवतनासीवद' ऐसा उल्लेख है जो इस तथ्य का सूचक है कि उनके समाधि स्थल पर कोई निर्माण कार्य किया गया था। आर्य कृष्ण का उल्लेख करने वाला अन्य लेख स्पष्ट है और उसमें शक संवत् १५ निर्दिष्ट है। इस अभिलेख में कोटीयगण, स्थानीयकुल और वैरी शाखा का उल्लेख भी है । इस आधार पर आर्य शिव और आर्य कृष्ण का काल वि.सं. २३० के लगभग आता है। वस्त्र पात्र विवाद का काल वीर नि. सं. ६०९ तदनुसार ६०९ ४१० अर्थात् वि.सं. १९९ मानने पर इसकी संगति उपर्युक्त अभिलेख से हो जाती है क्योंकि आर्य कृष्ण की यह प्रतिमा उनके स्वर्गवास के ३०-४० वर्ष बाद ही कभी बनी होगी । उससे यह बात भी पुष्ट होती है कि आर्य शिव आर्य कृष्ण से ज्येष्ठ थे। कल्पसूत्र स्थविरावली में भी उन्हें ज्येष्ठ कहा गया है। सम्भावना यह भी हो सकती है कि ये दोनों गुरुभाई हों और उनमें आर्य शिव ज्येष्ठ और आर्य कृष्ण कनिष्ठ हों या आर्य शिव आर्य कृष्ण के गुरु हों। यद्यपि विशेषावश्यकभाष्य में साम्प्रदायिक अभिनिवेश के कारण यह क्रम उलट दिया गया है। आर्य शिव को उमास्वाति का प्रगुरु मानने पर उनका काल तीसरी शताब्दी का पूर्वार्ध मानना होगा, किन्तु तीसरी शती के उत्तरार्ध से चौथी शताब्दी पूर्वार्ध तक के जो भी जैन शिलालेख उपलब्ध हैं, उनमें कहीं भी श्वेताम्बर, दिगम्बर या यापनीय ऐसा उल्लेख उपलब्ध नहीं होता । वस्त्र, पात्र आदि के उपयोग को लेकर विक्रम संवत् की तीसरी शताब्दी के पूर्वार्ध से विवाद प्रारम्भ हो गया था, किन्तु श्वेताम्बर, दिगम्बर या यापनीय परम्पराओं के भेद स्थापित नहीं हुए थे। वि. सं. की छठीं शताब्दी के पूर्वार्ध अर्थात् ई. सन् ४७५ से ४९० के अभिलेखों में सर्वप्रथम श्वेतपट्ट महाश्रमणसंघ (श्वेताम्बर), निर्ग्रन्थमहाश्रमणसंघ (दिगम्बर) और यापनीय संघ के उल्लेख मिलते हैं। प्रो. मधुसूदन ढाकी ने उमास्वाति का काल चतुर्थ शती निर्धारित किया है। उपर्युक्त चर्चा के आधार पर मैं इसे तीसरी शताब्दी के उत्तरार्ध से चौथी शती के पूर्वार्द्ध के बीच मानना चाहूँगा । चाहे हम उमास्वाति का काल प्रथम से चतुर्थ शती के बीच कुछ भी मानें, इतना निश्चित है कि वे संघ भेद के पूर्व के हैं। यदि हम उमास्वाति के प्रगुरु शिव का समीकरण आर्य शिव, जिनका उल्लेख कल्पूसत्र स्थविरावली में भी है और जो उत्तर भारत में वस्त्र - पात्र सम्बन्धी विवाद के जनक थे, से करते हैं तो समस्या का समाधान मिलने में सुविधा होती है। आर्य शिव वीर निर्वाण सं. ६०९ अर्थात् विक्रम की तीसरी शताब्दी के पूर्वार्द्ध में उपस्थित थे। इस आधार पर उमास्वाति तीसरी शती Jain Education International : ८५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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