Book Title: Umaswati aur Unki Parampara Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_6_001689.pdf View full book textPage 5
________________ उमास्वाति और उनकी परम्परा : ९१ स्थविरावली में भी उन्हें ज्येष्ठ कहा गया है। सम्भावना यह भी हो सकती है ये दोनो गुरुभाई हों और उनमें आर्य शिव ज्येष्ठ और आर्य कृष्ण कनिष्ठ हों या आर्य शिव आर्य कृष्ण के गुरु हों। यद्यपि विशेषावश्यकभाष्य में साम्प्रदायिक अभिनिवेश के कारण यह क्रम उलट दिया गया है। इन आर्य शिव को उमास्वाति का प्रगुरु मानने पर उनका काल तीसरी शताब्दी का पूर्वार्ध होगा, किन्तु तीसरी शती के उत्तरार्ध से चौथी शताब्दी पूर्वार्ध तक के जो भी जैन शिलालेख उपलब्ध हैं, उनमें कहीं भी श्वेताम्बर, दिगम्बर या यापनीय ऐसा उल्लेख उपलब्ध नहीं होता। वस्त्र, पात्र आदि के उपयोग को लेकर विक्रम संवत् की तीसरी शताब्दी के पूर्वार्ध से विवाद प्रारम्भ हो गया था, किन्तु स्पष्ट रूप से श्वेताम्बर, दिगम्बर या यापनीय परम्पराओं के भेद स्थापित नहीं हए थे। वि.सं. की छठी शताब्दी के पूर्वार्ध के अर्थात् ई.सन् ४७५ से ४९० के अभिलेखों में सर्वप्रथम श्वेतपट्ट महाश्रमणसंघ (श्वेताम्बर), निर्ग्रन्थमहाश्रमणसंघ (दिगम्बर) और यापनीय संघ के उल्लेख मिलते हैं। प्रो. मधुसूदन ढाकी ने उमास्वाति का काल चतुर्थ शती निर्धारित किया है। उपर्युक्त चर्चा के आधार पर मैं इसे तीसरी शताब्दी के उत्तरार्ध से चौथी शती के पूर्वार्द्ध के बीच मानना चाहूँगा। चाहे हम उमास्वाति का काल प्रथम से चतुर्थ शती के बीच कुछ भी मानें किन्तु इतना तो निश्चित है कि वे संघ भेद के पूर्व के हैं। यदि हम उमास्वाति के प्रगुरु शिव का समीकरण आर्य शिव, जिनका उल्लेख कल्पूसत्र स्थविरावली में भी है और जो उत्तर भारत में वस्त्र-पात्र सम्बन्धी विवाद के जनक थे, से करते हैं तो समस्या का समाधान मिलने में सुविधा होती है। आर्य शिव वीर निर्वाण सं. ६०९ अर्थात् विक्रम की तीसरी शताब्दी के पूर्वार्द्ध में उपस्थित थे। इस आधार पर उमास्वाति तीसरी के उत्तरार्ध और चौथी के पूर्वार्ध में हुए होंगे, ऐसा माना जा सकता है। यह भी सम्भव है कि वे इस परम्परा भेद में भी कौडिण्य और कोट्टवीर के साथ संघ से अलग न होकर मूलधारा से जुड़े रहे हों। फलतः उनकी विचारधारा में यापनीय और श्वेताम्बर दोनो ही परम्परा की मान्यताओं की उपस्थिति देखी जाती है। वस्त्र-पात्र को लेकर वे श्वेताम्बरों और अन्य मान्यताओं के सन्दर्भ में यापनीयों के निकट रहे हैं। इन समस्त चर्चाओं से हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि उमास्वाति का काल विक्रम संवत की तीसरी और चौथी शताब्दी के मध्य है और इस काल तक वस्त्र-पात्र सम्बन्धी विवादों के बावजूद भी श्वेताम्बर, दिगम्बर और यापनीयों का अलग-अलग साम्प्रदायिक अस्तित्व नहीं बन पाया था। स्पष्ट सम्प्रदाय भेद, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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