Book Title: Trishashtishalakapurushcharitammahakavyam Parva 10
Author(s): Hemchandracharya, Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 279
________________ श्रीवीतरागस्तवान्तर्गतः ॥शरणस्तवः ॥ स्वकृतं दुष्कृतं गर्हन् सुकृतं चाऽनुमोदयन् । नाथ ! त्वच्चरणौ यामि शरणं शरणोज्झितः ॥ गर्दा करूं अपने किए सब दुष्कृतों की हे प्रभो ! । सत्कर्म जो मैंने किए उनकी करूं अनुमोदना । अशरण बनी भवरण भमत हे नाथ ! जीवनसाथ हे ! । तव चरण में चाहं शरण ज्यौं मिटत भव की वेदना ॥ मनोवाक्कायजे पापे कृतानुमतकारितैः । मिथ्या मे दुष्कृतं भूया-दपुनःक्रिययाऽन्वितम् ॥ बहु पाप करवाए, किए, अनुमोदना भी खूब दी । मन से, वचन से, बदन से; हे सांइ ! बिगरी जिंदगी । निश्चय करूं फिरसे न करने का, किए सब पाप की । याचुं क्षमा भगवंत ! स्वीकारो हमारी बंदगी ॥ यत् कृतं सुकृतं किञ्चिद् रत्नत्रितयगोचरम् । तत् सर्वमनुमन्येऽहं मार्गमात्रानुसार्यपि ॥ रत्नत्रयी के अंश का भी आचरण सत्कर्म है । सन्मार्ग का अत्यल्प भी अनुसरण भी सत्कर्म है । मार्गानुसरण शुभाचरण जो बन पडा मुझसे विभो ! । अनुमोदना सब की करूं, यह भी सरस शुभ कर्म है । सर्वेषामर्हदादीनां यो योऽर्हत्त्वादिको गुणः । अनुमोदयामि तं तं सर्वं तेषां महात्मनाम् ॥ अहंत आदिक परमपावन चित्तभावन पूज्यगण । उनमें अनावृत और विकसित जो हुए हैं आत्म-गुण । अनुमोदना प्रमुदित हृदय से उन सभी की मैं करूं । पाऊं परम गुणराग से गुणवृन्द आत्मिक जागरण ॥

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