Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charit Part 08
Author(s): Surekhashreeji Sadhvi
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 302
________________ व्रत लेने की आज्ञा दी। पश्चात् संतोष सुख के शत्रु जैसे राज्य को तृण के समान छोड़कर अभयकुमार ने श्री वीर प्रभु के पास दीक्षा ग्रहण की। जब अभयकुमार ने व्रत ग्रहण किया, तब उसकी माता नंदा में भी श्रेणिक राजा की आज्ञा लेकर श्री वीर प्रभु के चरणों में आकर दीक्षा ली। अभय और नंदा ने दीक्षा लेते समय दिव्य दो कुंडल और दिव्य वस्त्रयुग्म जो पूर्व में श्रेणिक द्वारा प्रदत्त थे, वे हल्ल और विहल्ल को प्रदान कर दिये। (गा. 97 से 105) सुर असुरों से सेवित होने पर भी श्री वीर प्रभु ने भव्य जनों को प्रतिबोध करने के लिए वहाँ से अन्यत्र विहार किया। अभयकुमार विविध प्रकार के अभिग्रह पूर्वक चिरकाल तक चारित्र की परिपालना करते हुए मृत्यु के पश्चात् सर्वार्थ सिद्ध विमान में उत्तम देवरूप में उत्पन्न हुए। (गा. 106 से 107) जब अभयकुमार ने श्री वीरप्रभु के पास दीक्षा ली तब शुद्ध बुद्धि वाले मगधपति श्रेणिक राजा ने इस प्रकार चिंतन किया कि “अभयकुमार मेरे सर्वकुमारों में गुणों में भूमि रूप था, उस सुकृति ने तो व्रत अंगीकार करके अपना स्वार्थ सिद्ध का लिया, तो अब पराक्रमी और आयुष्मान् किसी कुंवर पर इस राज्य का भार सौंपना चाहिये। क्योंकि 'नृपतियों का यह क्रम चला आ रहा है।' सुगुण हो या निर्गुण परंतु पुत्र ही पिता की संपत्ति का अधिकारी होता है। परंतु यदि पुत्र गुणवान हो तो पिता का पुण्य उज्जवल गिना जाता है। अभयकुमार के बिना अब मेरे विश्राम का धाम मात्र मेरा गुणी पुत्र कुणिक है। यही राज्य के योग्य है, उसके अतिरिक्त अन्य कोई भी राज्य के योग्य नहीं है।" ऐसा निश्चय करके कुणिक को राज्य देने का निर्धार करके श्रेणिक ने हल्ल-विहल्ल को अठ्ठारह चक्र का हार और सेचनक नामक हाथी दे दिया। यह देखकर कुणिक कुमार ने अपने काल आदि दस बंधुओं को एकत्रित करके कहा पिता जी वृद्ध हो गए अभी राज्य को तृप्ति नहीं हुई। पुत्र जब कवचधारी हो जाए तब राजागण व्रत ग्रहण कर लेते हैं। अपने ज्येष्ठ अभयकुमार बंधु को धन्य है जिन्होंने युवा होनेपर भी राज्यलक्ष्मी को के ठुकरा दी। परंतु अपने विषयांध पिता तो अद्यापि राज्य भोग करते हुए कुछ भी नहीं देख रहे हैं। अतः आज ही इस पिता को बंध करके अपन समय के योग्य राज्य ग्रहण त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व) 289

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