Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charit Part 08
Author(s): Surekhashreeji Sadhvi
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 329
________________ गिर पड़ेगा। अतिक्रूर आशयवाले कल्की में क्रोध, मान, माया और लोभ, काष्ट में घुण जाति के कीड़े स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होंगे। उस काल में चोर लोकों का एवं राजा के विरोध का भय बना रहेगा। इसी प्रकार उत्तम गंध - रस क्षय, दुर्भिक्ष और अतिवृष्टि होती रहेगी। वह कल्की जब अट्ठारह वर्ष का होगा तब तक महामारी होती रहेगी। वह प्रचंडात्मा कल्की राजा होगा। एक वक्त कल्की राजा नगर में भ्रमण करने निकलते समय मार्ग में पाँच स्तूपों को देखकर पार्श्वस्थ जनों को पूछेगा कि 'ये स्तूप किसने कराये है ? तब वे उसे ज्ञात करायेगे कि, 'पूर्व में धन में कुबेर भंडारी जैसा नंद नामका विश्वविख्यात राजा हो गया है, उसने इन स्तूपों के नीचे प्रचुर सुवर्ण डाला है, परंतु उसे लेने में अद्यापि कोई भी राजा समर्थ नहीं हुआ है। यह सुनकर जो स्वभाव से ही अत्यन्त लुब्ध था, ऐसा वह कल्की राजा उस स्तूप को खुदवाकर उसके नीचे से सर्व सुवर्ण को ले लेगा। तत्पश्चात् वह द्रव्य का अर्थी – (लालची) होकर सम्पूर्ण शहर को खुदवा डालेगा एवं अन्य सर्व राजाओं को तृण के तुल्य गिनेगा। कल्की के द्वारा खुदाई हुई उस नगरी की भूमि में से लवण देवी नामकी एक शिलामयी गाय निकलेगी। उसे चौराहे में खड़ा रखा जाएगा। वह अपना प्रभाव दर्शाने के लिए भिक्षा टन करते मुनियों को अपने शृंग के अग्रभाग से संघट्ट करेगी। इस पर से वे स्थविर कहेंगे कि, 'ये भविष्य में जल का महान् उपद्रव होने का सूचित कर रही है इसलिए इस नगरी को छोड़कर चले जाना योग्य है।' यह सुनकर कितनेक महर्षिगण तो भोजन वस्त्र आदि के लोलुपी वहाँ ही रहेंगे और कहेंगे कि 'कर्म के वश ऐसे कालयोग में जो कुछ शुभ और अशुभ होने वाला है, उसको रोकने में जिनेश्वर भी समर्थ नहीं है।' (गा. 74 से 93) तत्पश्चात् वह दुष्ट कल्की सर्व पाखंडियों के पास से कर लेगा। वे उसे देंगे। क्योंकि वे तो सारंभी परिग्रही होते हैं। उसके बाद वह लुब्ध कल्की ‘अन्य पाखंडी कर देते हैं, तो तुम क्यों नहीं देते?' ऐसा कहकर साधुओं को भी कर देने को कहेगा। साधुगण उसे कहेंगे कि “राजन् हम तो निष्कंचन हैं और भिक्षा जीवी हैं, तो हम धर्मलाभ के अतिरिक्त तुमको क्या दें? पुराणों में कहा है कि "ब्रह्मनिष्ठ तपस्वियों का रक्षण करने वाले राजा को उनके पुण्य का छट्ठा भाग मिलता है, इसलिए हे राजन्! इस दुष्कृत्य से विराम लो। तुम्हारा यह व्यवसाय 316 त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)

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