Book Title: Triloksthit Jin gruh Stava Author(s): Kalyankirtivijay Publisher: ZZ_Anusandhan View full book textPage 2
________________ अनुसंधान-२१ त्रिलोकस्थितजिनगृहस्तव ॥ श्रीकुशलवर्द्धनसूरिगुरुभ्यो नमः ।। असुरसुरखयरनरनमियपयपंकयं नमिवि रिसहेसरं भवियकयसुक्कयं । भणीसु तिलोयठियजिणहराणं थयं जेम मे जाइ बहुपुव्वभवदुक्कयं ॥१॥ बत्तीसलक्खा य सोहंमि(म)कप्पे वरे इसाणि अडवीसई लक्ख जिणमंदिरे । सणंतकुमारि[ए] बारसयसहसया लक्ख माहिंदे. अद्वैव वंदे सया ॥२॥ बंभलोगंमि चत्तारि लक्खा वरा जत्थ पूर्यति भत्तीइ विबुहेसरा । सहसपन्नास वंदामि लंतग(गा)भिहे सुकि चालीससहसा य जिणहर महे ॥३॥ अठमे कप्पि सहसारि जिण संथुणे छच्च सहसु(स्सु) वंदामि जिणभूयणे । आणए नवमि कप्पंमि तह पाणए दसमिए (दसमि) दुनि दुन्नि पणमामि चेइ(ई)सए ।।४।। आरणे दिवड्डसय कप्पि एगारसे अच्चूए कप्पि सउ दिवड्ड तह बारसे । पढमि गेविज्जि तिगि इगारअहियं सयं बीयतिगि एगसयसत्तहिय चंगयं ।।५।। एगसयसोहियं अस्थि तईयं तिगं नवमि गेविज्जि अट्ठारहिय-सयतिगं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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