Book Title: Triloksthit Jin gruh Stava Author(s): Kalyankirtivijay Publisher: ZZ_Anusandhan Catalog link: https://jainqq.org/explore/229635/1 JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLYPage #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकस्थितजिनगृहस्तव सं. मुनि कल्याणकीर्तिविजय अपभ्रंशभाषामय आ स्तवमा त्रणेय लोकमां रहेल शाश्वत चैत्यो तथा तिर्छा लोकमां रहेला आशाश्वत चैत्योंनी स्तवना करेल छ । तेमां प्रथम आठ कडीओमां ऊर्ध्वलोकस्थित जिनचैत्योंनी गणनापूर्वक स्तुति करी छे । नवमा पद्यमां भवनपति-व्यंतरज्योतिषीओना निवासोमां रहेला जिनचैत्यांनी स्तवना करी छे । दशमा पद्यमां तिर्यगलोकस्थित शाश्वत चैत्योने वंदना करी छ । ११-१२ पद्यमां भरतक्षेत्रमा रहेल आशाश्वत चैत्योनी स्तवना करी छ । पुष्पिकामां 'इति सास्वता' एवं लख्युं छे ते उपरथी 'सास्वताअसास्वता चैत्यवंदना' एवं आ स्तव नाम संभवी शके छे, छतां प्रथम पद्यनी त्रीजी पंक्तिमा दर्शाव्या प्रमाणे आ स्तवनु नाम त्रिलोकस्थितजिनगृहस्तव एवं राख्युं छे । आ स्तवनी प्रथम आठ कडीओ २० मात्राना चतुष्पदी स्रग्विणी छंदमां रचायेली छे । पद्य ९ थी १२-ते १६ मात्राना जगणांत चतुष्पदी पद्धडिया । पज्झटिका छंदमां रचायेली छे । अने छेल्लु पद्य ३२ मात्राना द्विपदी घत्ता छंदमां रचायेल छे जेमा यति १०-८-१४ मात्रा पर थाय छे । प्रस्तुत स्तवना कर्ता मुनि रविसिंह होय तेवू अंतिम पद्यना प्रथम चरणमां करायेला निर्देशथी जणाय छ । प्रतिनुं लेखन वि.सं. १६६७ ना चैत्र सुदि १३ना दिने थयुं छे । लेखनकर्ता आगमगच्छना आचार्य कुशलवर्धनसूरिनी परंपरामां थयेल आचार्य कुलवर्धनसूरिना शिष्य ऋषि विद्यावर्धन छे तेवू प्रतिना अंते लखायेल पुष्पिकाथी जणाय छ । Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसंधान-२१ त्रिलोकस्थितजिनगृहस्तव ॥ श्रीकुशलवर्द्धनसूरिगुरुभ्यो नमः ।। असुरसुरखयरनरनमियपयपंकयं नमिवि रिसहेसरं भवियकयसुक्कयं । भणीसु तिलोयठियजिणहराणं थयं जेम मे जाइ बहुपुव्वभवदुक्कयं ॥१॥ बत्तीसलक्खा य सोहंमि(म)कप्पे वरे इसाणि अडवीसई लक्ख जिणमंदिरे । सणंतकुमारि[ए] बारसयसहसया लक्ख माहिंदे. अद्वैव वंदे सया ॥२॥ बंभलोगंमि चत्तारि लक्खा वरा जत्थ पूर्यति भत्तीइ विबुहेसरा । सहसपन्नास वंदामि लंतग(गा)भिहे सुकि चालीससहसा य जिणहर महे ॥३॥ अठमे कप्पि सहसारि जिण संथुणे छच्च सहसु(स्सु) वंदामि जिणभूयणे । आणए नवमि कप्पंमि तह पाणए दसमिए (दसमि) दुनि दुन्नि पणमामि चेइ(ई)सए ।।४।। आरणे दिवड्डसय कप्पि एगारसे अच्चूए कप्पि सउ दिवड्ड तह बारसे । पढमि गेविज्जि तिगि इगारअहियं सयं बीयतिगि एगसयसत्तहिय चंगयं ।।५।। एगसयसोहियं अस्थि तईयं तिगं नवमि गेविज्जि अट्ठारहिय-सयतिगं । Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऑक्टोबर २००२ विजयवेजयंतजयंतअवराजियं सव्वसिद्धि पवरजिवेहिं ( वहि) वियराईयं (विराइयं) ||६|| पंचणुत्तेरविमाणेसु जिणमंदिरं एगमेगं नम॑सामि अइसुंदरं । लक्खचुलसी य सहसा य सत्ताणुई सव्वविमाण जिणभवण तेवीसई ॥७॥ इत्तियं सव्वसंखाय परिभासिय उडलोयंमि जिणवरिहिं सुपयासि । भवणवमज्झि चेहरे सुंदरे नमिसु रोमंचभरि भरीय जोड़ी करे ॥८॥ सत्तेव कोडि बावत्तरीय लक्खा भवसायर - सत्तरीय | वंतरवरजोइसी (सि) एसु दक्ख पभणडं जिणमंदिर नत्थि संख ||९|| कुंडलि रुयगेसु वि माणुसंमि नंदीसरि वेयड्डि सुरगिरिंमि । हिमवंत - सिहरि निसढाईएसु रिहाइपडिमा सोहीएसु ॥१०॥ सत्तुंजि गिरी (रि) सिरिउज्जयंति साचुरि वीर नमुं कणयकंति । संखेसरि करहेडड़ पुरंमि थंभणइ पासु जालउरि रंमि ॥ ११ ॥ अट्ठावय- गिरिवरि आबुयंमि समेहसिहरि भरुयच्छि रंमि । इय सासय- असासयचेईएसु तित्थेसर पणमिसु मणहरेसु ॥ १२ ॥ ४३ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसंधान-२१ इय संथ्य सामी सिवपुरगामी रविसिंहई पणमीय(मिय) चलण / लद्धइ मणुअत्तणि समरित नी(नि)यमणि जिम जीय छुट्टइ भवभमण / / 13 / / // इति सास्वता // संवत् 1667 वर्षे चैत्र सुदि 13 दिन आगमगच्छे भट्टारक श्री श्री 21 श्रीकुलवर्धनसूरि-तत् शिष्य ऋषिश्रीविद्यावर्धनेन लखितं वाच्यमाना चिरं नन्दतु // // श्रीशुभं तीर्थात् श्री //