Book Title: Tirthankar aur Ishwar ke Sampratyayo ka Tulnatamk Vivechan Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_2_001685.pdf View full book textPage 5
________________ तीर्थकर और ईश्वर के सम्प्रत्ययों का तुलनात्मक विवेघन : 91 है और उसका संसार में पुनरागमन नहीं होता। इस प्रकार दोनों अवधारणाओं में एक मौलिक अन्तर है। ईश्वर ऊपर से नीचे आता है उसका अवतरण होता है जबकि तीर्थंकर नीचे से ऊपर जाना है, उसका उत्तरण होता है। ईश्वरवाद और तीर्थकरवाद की अवधारणाओं में अन्य एक महत्त्वपूर्ण अन्तर यह भी है कि तीर्थंकर की अवधारणा में मानव की स्वतन्त्रता स्थापित होती है, क्योंकि जैनदर्शन के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति में स्व पुरुषार्थ से परमात्मा बनने की क्षमता है। जबकि ईश्वरवाद में मनुष्य को ऐसी कोई स्वतन्त्रता नहीं होती, वह मात्र ईश्वर के हाथ की कठपुतली होता है। इस प्रकार ईश्वरवाद मनुष्य को दास बनाता है। उसमें भक्त या उपासक की स्थिति सदैव ही सेवक की बनी रहती है। मनुष्य की इस दयनीय स्थिति को स्पष्ट करते हुए एक उर्दू शायर ने कहा "इंसा की बदबख्ती अन्दाज से बाहर है। कमबख्त खुदा होकर बन्दा नजर आता है।।" जैनधर्म मनुष्य को परमात्मा बनने की प्रेरणा देता है। उसमें भक्त, भक्त नहीं रहता भगवान बन जाता है। उपाध्याय देवचन्द्र जी लिखते हैं -- अजकुलगत केशरी लहरे निज पद तिम प्रभुभक्ति भवि लहरे आतम शक्ति। सन्त आनन्दघनजी पूर्ण आत्मविश्वास के साथ लिखते हैं -- "तुझ मुझ अन्तर भांज से बाज से मंगलतर" । हे प्रभु ! एक दिन आपके और मेरे बीच का यह अन्तर समाप्त होगा और मंगल वाद्य बजेगें। यह सत्य है कि उपास्य के रूप में ईश्वर या परमात्मा की अवधारणा को सभी दार्शनिकों ने मान्य किया है वे सब यह मानते हैं कि साधना के क्षेत्र में उपास्य का होना आवश्यक है। जैनधर्म में तीर्थंकर अर्हन्त को भी उसी तरह से उपास्य के रूप में स्वीकार किया गया है जिस प्रकार अन्य धर्मों में ईश्वर को। फिर भी दोनों परम्पराओं में अन्तर है। जैन परम्परा में साधना की पूर्णता पर उपास्य या उपासक का यह अन्तर समाप्त हो जाता है। जबकि ईश्वरवादी परम्पराओं में मात्र अद्वैत-वेदान्त को छोड़कर शेष सभी में यह अन्तर बना रहता है क्योंकि आत्मा कभी भी परमात्मा या जीव कभी भी ईश्वर नहीं बन सकता। ईश्वरवादी परम्पराओं में आत्मा और परमात्मा के बीच की खाई कभी भी पटती नहीं है, जबकि जैन परम्परा में वह खाई या दूरी समाप्त हो जाती है। पुनः ईश्वरवादी परम्पराओं में ईश्वर अपने भक्त की पीड़ा को दूर करने में समर्थ माना गया है। जबकि तीर्थंकर अपने भक्त के कष्टों को दूर करने में असमर्थ है। ईश्वरवाद में ईश्वर को सक्रिय और भक्त को निष्क्रिय होने का संदेश है। ईश्वर कहता है "बस तू तो मेरी शरण में आ जा, मैं तुझे सब पापों से मुक्त कर दूंगा।" इसके विपरीत तीर्थंकर पुरुषार्थ की प्रेरणा देते हुए कहता है "तेरा उत्थान और पतन मेरे हाथ में नहीं है तेरे ही हाथ में निहित है"। इस प्रकार ईश्वर और तीर्थंकर दोनों ही उपास्य हैं। फिर भी उन दोनों की भक्त या उपासक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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