Book Title: Tirthankar aur Ishwar ke Sampratyayo ka Tulnatamk Vivechan Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_2_001685.pdf View full book textPage 3
________________ तीर्थकर और ईश्वर के सम्प्रत्ययों का तुलनात्मक विवेचन : 89 भारतीय एवं इतर धर्मों में ईश्वर के सम्बन्ध में दूसरी महत्त्वपूर्ण अवधारणा यह है कि ईश्वर परम कारुणिक है। जैन-परम्परा में तीर्थंकर को और बौद्ध-परम्परा में बुद्ध को भी परम कारुणिक कहा गया है फिर भी तीर्थंकर या बुद्ध की कारुणिकता में और ईश्वर की कारुणिकता में अन्तर है। ईश्वर की कारुणिकता को कर्म-नियम के ऊपर स्वीकार किया गया है। परम-कारुणिक ईश्वर अपने भक्तों के समस्त अपराधों को अपनी कृपा या करुणा से समाप्त कर सकता है। इस प्रकार इन धर्मों में ईश्वर की कारुणिकता को कर्म-नियम की व्यवस्था से भी ऊपर माना गया है। गीता (18/65-66) में भगवान कष्ण कहते हैं कि "त मेरे में मन लगा, मेरे में जी और मुझे नमस्कार कर मैं तुझे सर्व पापों से मुक्त कर दूँगा।" किन्तु जैन तीर्थकर अपने भक्त को इस प्रकार का कोई आश्वासन नहीं दे सकता क्योंकि उसकी करुणा कर्म-नियम से परे नहीं है। जैन दार्शनिकों के अनुसार यदि परम कारुणिक ईश्वर की करुणा कर्म के नियम का अतिक्रमण कर जाती है तो कर्म-नियम का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता और कर्म-नियम के अभाव में धर्म, नैतिकता आदि स्वेच्छाचारी व्यक्ति से अधिक कुछ नहीं रहता। स्वेच्छाचार नियम-व्यवस्था का विरोधी है और जो नियम या व्यवस्था का विरोधी हो उसे ईश्वर कैसे कहा जा सकता है ? पुनः यदि ईश्वर की करुणा को कर्म-नियम के अधीन कार्य करने वाली माना जाय तो वह करुणा वस्तुतः करुणा नहीं होती। नियमानुसार दण्ड देने वाला न्यायाधीश करुणाशील नहीं कहा जायेगा। यदि कारुणिक ईश्वर का कार्य कर्म-नियम से अनुशासित है तो फिर ऐसे ईश्वर के ईश्वरत्व का न तो कोई महत्त्व रहता है और न उसकी करुणा का कोई अर्थ । अतः ईश्वरीय कृपा का यह अर्थ कि ईश्वर स्वेच्छा से चाहे जिसका कल्याण या अकल्याण कर सकता है अथवा यह कि वह अपनी स्वतन्त्र इच्छा से अपने भक्तों का कल्याण और दुष्टों का संहार करता है तो यह बात ईश्वर के ईश्वरत्व की दृष्टि से युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होती है। यदि यह माना जाय कि ईश्वर अपने भक्तों के भक्ति से उसके पापों को भी क्षमा कर देता है तो ऐसा ईश्वर चापलूसी पसन्द व्यक्ति से भिन्न नहीं होगा। वह न तो वीतराग हो सकता है और न ही विवान्त-वैर। जैन-दार्शनिक जिस तीर्थकर परमात्मा की कल्पना करते है वह तो वीतराग और विवान्तवैर है। वस्तुतः वह न तो किसी का कल्याण करता है और न ही अकल्याण । वह व्यक्ति के आत्म-विकास के लिये मात्र प्रेरणा-सोत होता है, निमित्त होता है। जैन-दर्शन में भी परमात्मा या तीर्थंकर को परम कारुणिक माना गया है। तीर्थकर की कारुणिकता की चर्चा अनेक जैन-कवियों ने की है। जयाचार्य लिखते है-- सुखदायक सह जगभणी तूं ही दीनदयाल । शरण आयो तुझ साहिबा तूं ही परमकृपाल।। गुणगातां मन गहगहे सुख सम्पत्ति जाण।। विधन मिटे समरण किया, पामे परम कल्याण।। - पदमप्रभु जिनस्तवन किन्तु उसकी यह करुणा स्वयं उसकी अपनी भाव-भूमि तक ही सीमित है। उसकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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