Book Title: Tirthankar Stavan
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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________________ १६. श्री शान्तिनाथ स्तवन निज स्वरूप सरवर में जिनवर, नियमित नित्य नहाते हो। अपने दिव्य बोधि के द्वारा, विषय-विकार बुझाते हो।। परम शान्त मुद्रा से मुद्रित, शान्ति-सुधा बरसाते हो। परम शान्ति हेतु होने से, शान्तिनाथ कहलाते हो।। १७. श्री कुन्थुनाथ स्तवन देवेन्द्रचक्र से चयकर प्रभु ने, पुनर्जन्म का अन्त किया। राजेन्द्रचक्र को त्याग कुन्थु ने, मुक्तिमार्ग स्वीकार किया। धर्मेन्द्रचक्र को धारण कर, जिनशासन का विस्तार किया। सिद्धचक्र में शामिल होकर, निजानन्द रसपान किया।। १. तालाब, २. रत्नत्रय, ३. शमित करना, ४. इन्द्रपद, ५. मरण कर, ६. चक्रवर्ती का चक्ररत्न, ७. तीर्थकर का चक्र (५१) २०. श्री मुनिसुव्रतनाथ स्तवन मिथ्यादर्शन-क्रोध-मान को, दुःखद बताया हे जिननाथ! माया-लोभ कषाय पाप का, बाप बताया सुव्रतनाथ ।। शरण आपकी पाने से, भविजन होते भव सागर पार । हे मुनिसुव्रतनाथ ! आपको, वन्दन करते सौ-सौ वार ।। २१. श्री नमिनाथ स्तवन हे नमि! तेरी अर्चन-पूजन, पापों से हमें बचाती है। समयसार की सात्त्विक चर्चा, शिव सन्मार्ग दिखाती है।। जिनवर! तेरी दिव्यध्वनि मम, मोह तिमिर हर लेती है। भवभ्रमण का अन्त करा कर, मोक्ष सुलभ कर देती है।। १. पवित्र वीतरागी चर्चा, २. सरलता से प्राप्त करना (५३) १८. श्री अरनाथ स्तवन हे अरनाथ ! जिनेश्वर तुमने, छह खण्ड छोड़ वैराग्य लिया। चक्र-सुदर्शन त्यागा तुमने, धर्मचक्र शिर धार लिया ।। सिद्धचक्र के साधनार्थ प्रभु! सकल परिग्रह त्याग दिया। शुक्लध्यान की सीढ़ी चढ़, सुखमय अर्हत्पद प्राप्त किया।। १९. श्री मल्लिनाथ स्तवन हे मल्लिनाथ ! तुम परमपुरुष हो, मंगलमय हो प्रभुवर आप। भक्तिभावना से हे भगवन! भक्तजनों के कटते पाप ।। प्रभो! आपका भक्त कभी भी, अधोगति नहीं जाता है। निजस्वभाव को पाकर प्रभुवर, शीघ्र मुक्तिपद पाता है।। १. साधना के लिए, २. नरक-तिर्यंचगति (५२) २२. श्री नेमिनाथ स्तवन तीन लोक में सार बताया, वीतराग विज्ञानी को। भव सागर में दुःखी बताया, मिथ्यात्वी अज्ञानी को ।। मुक्तिमार्ग का पथिक बताया, स्व-पर भेदविज्ञानी को। सहज स्वभाव सरलता से सुन! नेमिनाथ की वाणी को।। २३. श्री पार्श्वनाथ स्तवन पारस पत्थर छूने से ज्यों, लोह स्वर्ण हो जाता है। पार्श्वप्रभु की शरणागत से, पाप मैल धुल जाता है।। जो भी शरण गहे पारस की, आनँद मंगल गाता है। पाश्र्व प्रभु के आराधन से, पतित पूज्यपद पाता है।। (५४)

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