Book Title: Tirth Kshetra Lakshmaniji Author(s): Jayantvijay Publisher: Z_Rajendrasuri_Janma_Sardh_Shatabdi_Granth_012039.pdf View full book textPage 2
________________ गंगदेव तस्य पत्नी गंगादेवी तस्याः पुत्र पदम तस्य भार्या मांगल्या प्र. ।" शेष पाषाण प्रतिमाओं के लेख बहुत ही अस्पष्ट हो गये हैं; परन्तु उनकी बनावट से ऐसा जान पड़ता है कि वे भी पर्याप्त प्राचीन हैं। उपरोक्त प्रतिमाएं भूगर्भ से प्राप्त होने के बाद श्री पार्श्वनाथस्वामीजी की एक छोटी सी धातु प्रतिमा चार अंगुल प्रमाण की प्राप्त हुई। उसके पृष्ठभाग पर लिखा है कि"संवत् १३०३ आ. शु. ४ ललित सा." यह बिंब भी सात सौ वर्ष प्राचीन है। विक्रम संवत् १४२७ के मार्गशीर्ष मास में जयानंद नामा जैन मुनियम अपने गुरुवर्य के साथ निमाड़ प्रदेश स्थित तीर्थ क्षेत्रों की यात्रार्थ पधारे थे। उसकी स्मृति में उन्होंने दो छंदों में विभक्त प्राकृतमय 'नेमाड़ प्रवास गीतिका' बनाई। उन छंदों से भी जाना जा सकता है कि उस समय नेमाड़ प्रदेश कितना समृद्ध था और लक्ष्मणी भी कितना वैभवशील था । परा । मांडव नगोवरी सगसया पंच ताराउरवरा जिस-ग सिगारी-सारण नंदुरी द्वादश हत्थिणी सग लखमणी उर इक्क सय सुह जिणहरा, भेटिया अणुवजणवए मुणि जयानंद पवरा ||१|| लक्खातिय सहस विपणसय, पण सहस्स सगसया; सय इगविंस दुसहसि सयल, दुन्नि सहस कणयमया । गाम गामि भक्ति परायण धम्मा धम्म सुजाणगा मुणि जयानंद निरक्खिया सबल समणो वासगा ॥२॥ निरक्या मंडपाचल में सात सौ जिन मंदिर एवं तीन लाख जैनों के घर; तारापुर में पांच जिन मंदिर एवं पाँच हजार श्रावकों के घर; तारणपुर में इक्कीस मंदिर एवं सात सौ जैन धर्माव लंबियों के घर; नांदूरी में बारह मंदिर एवं इक्कीस सौ श्रावकों के घर हस्तिनी पत्तन में सात मंदिर एवं दो हजार श्रावकों के घर और लक्ष्मणी में १०१ जिनालय एवं दो हजार जैन धर्मानुयायियों के घर | धन-धान्य से सम्पन्न, धर्म का मर्म समझने वाले एवं भक्ति परायण देखे। इससे आत्मा में प्रसन्नता हुई। लक्ष्मणी लक्ष्मणपुर, लक्ष्मणपुर आदि इसी तीर्थ नाम है. जो यहाँ पर अस्त व्यस्त पड़े पत्थरों से जाने जा सकते हैं। लक्ष्मणी का पुनरुद्धार एवं प्रसिद्धि पूर्व लिखित पत्रों से यह मालूम होता है कि यहाँ पर मिला के खेत में से चोदह प्रतिमाएँ प्राप्त तथा श्री अतिराजपुर नरेश श्री प्रतापसिंहनी ने ये प्रतिमाएँ तस्य श्री जैन श्वेतांबर संघ को अर्पित की। श्री संघ का विचार था कि ये प्रतिमाएँ अलिराजपुर लाई जायें, परन्तु नरेश के अभिप्राय से वहीं मंदिर बंधवा कर मूर्तियों को स्थापित करने का विचार किया, जिससे उस स्थान का ऐतिहासिक महत्व प्रसिद्ध हो । उस समय श्रीमद् उपाध्यायजी श्री यतीन्द्र विजयजी - आचार्य श्री यतीन्द्र सूरीश्वरजी महाराज वहाँ बिराज रहे थे। उनके ८ Jain Education International पदेश से नरेश लक्ष्मण के लिए मंदिर कुआं वर्गीचा, खे आदि के निमित्त पूर्व-पश्चिम ५११ फीट और उत्तर-दक्षिण ६११ फीट भूमि श्री संघ को बिना मूल्य भेंट स्वरूप प्रदान की और आजीवन मंदिर खर्च के लिए इकहत्तर रुपए प्रतिवर्ष देते रहना और स्वीकृत किया । महाराजश्री का सदुपदेश, नरेश की प्रभुभक्ति एवं श्रीसंघ का उत्साह - इस प्रकार के भावना त्रिवेणी संगम से कुछ ही दिनों में भव्य त्रिशिखरी प्रासाद बन कर तैयार हो गया। अलिराजपुर, कुक्षी, बाग, टांडा आदि आस-पास के गाँवों के सद्गृहस्थों ने भी लक्ष्मी का सद्व्यय करके विशाल धर्मशाला, उपाश्रय ऑफिस, फुल, बावड़ी आदि बनवाये एवं वहाँ की सुंदरता विशेष विकसित करने के लिए एक बगीचा भी बनवाया; उसमें गुलाब, मोगरा, चमेली, आम आदि विविध पेड़-पौधे भी लगवाये । इस प्रकार जो एक समय अज्ञात तीर्थस्थल था वह पुनः उद्धरित होकर लोक-प्रसिद्ध हुआ। मिट्टी के टीले की खुदाई में प्राचीन समय के वर्तन आदि बहुत ही ऐतिहासिक वस्तुएँ भी प्राप्त हुई वर्गीचे के निकटवर्ती खेत में से मंदिरों के चार पाँच प्राचीन पब्बासन भी प्राप्त हुए हैं। प्रतिष्ठाकार्य पूज्यपाद आचार्य देव श्रीमद् विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी महाराज -जो उस समय उपाध्यायजी थे-ने वि. सं. १९९४ मार्गशीर्ष शुक्ला १० को अष्ट दिनावधि अष्टाह्निका महोत्सव के साथ बड़े ही हर्षोरसाह से शुभ लग्नांग में नवनिर्मित मंदिर की प्रतिष्ठा की । तीर्थाधिपति श्री पद्मप्रभ स्वामीजी गादीनशीन किये गये और अन्य प्रतिमाएँ भी यथास्थान प्रतिष्ठित की गईं। प्रतिष्ठा के दिन नरेश ने दो हजार एक रुपये मंदिर को भेंट स्वरूप प्रदान किये और मंदिर की रक्षा का भार अपने ऊपर लिया सचमुच सर प्रतापसिंह नरेश की प्रभुभक्ति एवं तीर्थ प्रेम सराहनीय है। प्रतिष्ठा के समय मंदिर के मुख्य द्वार - गर्भगृह के दाहिनी ओर एक शिलालेख संगमरमर के प्रस्तर पर उत्कीर्ण किया गया। वह इस प्रकार है श्री लक्ष्मणी तीर्थ प्रतिष्ठा प्रशस्ति- तीर्थाधिप श्री पद्मप्रभस्वामी जिनेश्वरेभ्यो नमः । श्री विक्रमीय निधि वसुन्देन्दुत्तमे वत्सरे कालिकाऽसिलाइ मावस्यायां शनिवासरेऽति प्राचीने श्री लक्ष्मणी--जैन महातीर्थे बालु किरातस्य क्षेत्रतः श्री पद्मप्रभजिनादि तीर्थेश्वराणामनुपम प्रभावशालिन्योऽतिसुन्दरतभारचतुर्दश प्रतिमाः प्रादुरभवन् । तत्पूजार्थं प्रतिवर्ष वसति रूय्यक संप्रदानयुतं श्री जिनालय धर्मशाला रामादि निर्माणार्थं श्वेतांबर जैन श्री संघस्याऽलिराजपुराधिपतिना राष्ट्रकूट वंशीवेन के. सी. आई.ई. धारिणा सर प्रतापसिंह बहादुर भूपतिना पूर्व पश्चिमे ५११ दक्षिनोत्तरे ६११ फूट परिमित भूमिसमर्पणं व्याधावि, तीर्थरामे सुभट (पुलिस) नियोजित राजेन्द्र- ज्योति For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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