Book Title: Tirth Kshetra Lakshmaniji
Author(s): Jayantvijay
Publisher: Z_Rajendrasuri_Janma_Sardh_Shatabdi_Granth_012039.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थक्षेत्र श्री लक्ष्मणीजी मुनि जयंतविजय 'मधुकर' १०. श्री चंद्रप्रभ स्वामीजी ११. श्री अनन्तनाथजी १३३ १२. श्री चौमुखजी १३. श्री अभिनंदन स्वामीजी १४. श्री महावीर स्वामीजी तेरहवीं और चौदहवीं प्रतिमाजी खंडित अवस्था में प्राप्त श्री लक्ष्मणीजी तीर्थ एक प्राचीन जैन तीर्थ है। विक्रम की सोलहवीं सदी में यह तीर्थ विद्यमान था। कतिपय प्रमाण लेखों से इस तीर्थ की प्राचीनता कम से कम दो हजार वर्षों से भी अधिक पूर्वकाल की सिद्ध होती है। . जब मांडवगढ़ यवनों का समरांगण बना तब इस बृहत्तीर्थ पर भी यवनों ने आक्रमण किया और यहां के मंदिरादि तोड़ना प्रारम्भ किया। इस प्रकार यावनी आक्रमण के कारण यह तीर्थ पूरी तरह नष्ट हो गया और विक्रम की १९ वीं सदी में इसका केवल नाममात्र ही अस्तित्व में रह गया और वह भी बिगड़कर लखमणी हो गया तथा उस जगह पर भीलभिलालों के बीस-पच्चीस टापरे ही अस्तित्व में रह गये। एक समय एक भिलाला कृषिकार के खेत में से सर्वांगसुंदर ग्यारह जिन प्रतिमाएं प्राप्त हुईं। कुछ दिनों पश्चात् उसी स्थान से दो-तीन हाथ की दूरी पर से तीन प्रतिमाएं और निकलीं; उनमें से एक प्रतिमाजी को भिलाले लोग अपना इष्ट देव मान कर तेल सिंदूर से पूजने लगे। भूगर्भ से प्राप्त इन चौदह प्रतिमाओं के नाम और उनकी ऊँचाई का विवरण इस प्रकार है ऊंचाई (इंचों में) १. श्री पद्मप्रभस्वामी २. श्री आदिनाथजी ३. श्री महावीर स्वामीजी ४. श्री मल्लीनाथजी । ५. श्री नमिनाथजी २६ ६. श्री ऋषभदेवजी ७. श्री अजितनाथजी ८. श्री ऋषभदेवजी ९. श्री संभवनाथजी चरम तीर्थाधिपति श्री महावीर स्वामीजी की बत्तीस इंच बड़ी प्रतिमा सर्वांगसुंदर है और श्वेत वर्ण वाली है। इस प्रतिमा पर कोई लेख नहीं है। फिर भी उस पर रहे चिह्नों से यह ज्ञात होता है कि ये प्रतिमाजी महाराजा संप्रति के समय में प्रतिष्ठित हुई होंगी। श्री अजितनाथ प्रभु की पन्द्रह इंच बड़ी प्रतिमा बालूरेती की बनी हुई है और प्राचीन एवं दर्शनीय है। श्री पद्मप्रभुजी की प्रतिमा जो सैंतीस इंच बड़ी है वह परिपूर्णाग है और श्वेत वर्णी है। उस पर जो लेख है वह मंद पड़ गया है। 'संवत् १०१३ वर्षे वैसाख सुदी सप्तम्यां' केवल इतना ही भाग पढ़ा जा सकता है। शेष भाग बिल्कुल अस्पष्ट है। श्री मल्लीनाथजी एवं श्याम श्री नमिनाथजी की छब्बीसछब्बीस इंच बड़ी प्रतिमाएं भी उसी संवत् में प्रतिष्ठित की गई हों ऐसा आभास होता है। उपरोक्त लेख से ये तीनों प्रतिमाएँ एक हजार वर्ष प्राचीन सिद्ध होती हैं। श्री आदिनाथजी २७ इंच और श्री ऋषभदेव स्वामी की १३-१३ इंची बदामी वर्ण की प्रतिमाएँ कम-से-कम सात सौ वर्ष प्राचीन हैं और तीनों एक ही समय की प्रतीत होती हैं। श्री आदिनाथ स्वामी की प्रतिमा पर निम्नलिखित लेख है__"संवत् १३१० वर्षे माघ सुदी ५ सोम दिने प्राग्वाट ज्ञातीय मंत्री गोसल तस्य चि. मंत्री आ (ला) लिंगदेव, तस्य पुत्र १०॥ वी.नि.सं. २५०३ Jain Education Intemational Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गंगदेव तस्य पत्नी गंगादेवी तस्याः पुत्र पदम तस्य भार्या मांगल्या प्र. ।" शेष पाषाण प्रतिमाओं के लेख बहुत ही अस्पष्ट हो गये हैं; परन्तु उनकी बनावट से ऐसा जान पड़ता है कि वे भी पर्याप्त प्राचीन हैं। उपरोक्त प्रतिमाएं भूगर्भ से प्राप्त होने के बाद श्री पार्श्वनाथस्वामीजी की एक छोटी सी धातु प्रतिमा चार अंगुल प्रमाण की प्राप्त हुई। उसके पृष्ठभाग पर लिखा है कि"संवत् १३०३ आ. शु. ४ ललित सा." यह बिंब भी सात सौ वर्ष प्राचीन है। विक्रम संवत् १४२७ के मार्गशीर्ष मास में जयानंद नामा जैन मुनियम अपने गुरुवर्य के साथ निमाड़ प्रदेश स्थित तीर्थ क्षेत्रों की यात्रार्थ पधारे थे। उसकी स्मृति में उन्होंने दो छंदों में विभक्त प्राकृतमय 'नेमाड़ प्रवास गीतिका' बनाई। उन छंदों से भी जाना जा सकता है कि उस समय नेमाड़ प्रदेश कितना समृद्ध था और लक्ष्मणी भी कितना वैभवशील था । परा । मांडव नगोवरी सगसया पंच ताराउरवरा जिस-ग सिगारी-सारण नंदुरी द्वादश हत्थिणी सग लखमणी उर इक्क सय सुह जिणहरा, भेटिया अणुवजणवए मुणि जयानंद पवरा ||१|| लक्खातिय सहस विपणसय, पण सहस्स सगसया; सय इगविंस दुसहसि सयल, दुन्नि सहस कणयमया । गाम गामि भक्ति परायण धम्मा धम्म सुजाणगा मुणि जयानंद निरक्खिया सबल समणो वासगा ॥२॥ निरक्या मंडपाचल में सात सौ जिन मंदिर एवं तीन लाख जैनों के घर; तारापुर में पांच जिन मंदिर एवं पाँच हजार श्रावकों के घर; तारणपुर में इक्कीस मंदिर एवं सात सौ जैन धर्माव लंबियों के घर; नांदूरी में बारह मंदिर एवं इक्कीस सौ श्रावकों के घर हस्तिनी पत्तन में सात मंदिर एवं दो हजार श्रावकों के घर और लक्ष्मणी में १०१ जिनालय एवं दो हजार जैन धर्मानुयायियों के घर | धन-धान्य से सम्पन्न, धर्म का मर्म समझने वाले एवं भक्ति परायण देखे। इससे आत्मा में प्रसन्नता हुई। लक्ष्मणी लक्ष्मणपुर, लक्ष्मणपुर आदि इसी तीर्थ नाम है. जो यहाँ पर अस्त व्यस्त पड़े पत्थरों से जाने जा सकते हैं। लक्ष्मणी का पुनरुद्धार एवं प्रसिद्धि पूर्व लिखित पत्रों से यह मालूम होता है कि यहाँ पर मिला के खेत में से चोदह प्रतिमाएँ प्राप्त तथा श्री अतिराजपुर नरेश श्री प्रतापसिंहनी ने ये प्रतिमाएँ तस्य श्री जैन श्वेतांबर संघ को अर्पित की। श्री संघ का विचार था कि ये प्रतिमाएँ अलिराजपुर लाई जायें, परन्तु नरेश के अभिप्राय से वहीं मंदिर बंधवा कर मूर्तियों को स्थापित करने का विचार किया, जिससे उस स्थान का ऐतिहासिक महत्व प्रसिद्ध हो । उस समय श्रीमद् उपाध्यायजी श्री यतीन्द्र विजयजी - आचार्य श्री यतीन्द्र सूरीश्वरजी महाराज वहाँ बिराज रहे थे। उनके ८ पदेश से नरेश लक्ष्मण के लिए मंदिर कुआं वर्गीचा, खे आदि के निमित्त पूर्व-पश्चिम ५११ फीट और उत्तर-दक्षिण ६११ फीट भूमि श्री संघ को बिना मूल्य भेंट स्वरूप प्रदान की और आजीवन मंदिर खर्च के लिए इकहत्तर रुपए प्रतिवर्ष देते रहना और स्वीकृत किया । महाराजश्री का सदुपदेश, नरेश की प्रभुभक्ति एवं श्रीसंघ का उत्साह - इस प्रकार के भावना त्रिवेणी संगम से कुछ ही दिनों में भव्य त्रिशिखरी प्रासाद बन कर तैयार हो गया। अलिराजपुर, कुक्षी, बाग, टांडा आदि आस-पास के गाँवों के सद्गृहस्थों ने भी लक्ष्मी का सद्व्यय करके विशाल धर्मशाला, उपाश्रय ऑफिस, फुल, बावड़ी आदि बनवाये एवं वहाँ की सुंदरता विशेष विकसित करने के लिए एक बगीचा भी बनवाया; उसमें गुलाब, मोगरा, चमेली, आम आदि विविध पेड़-पौधे भी लगवाये । इस प्रकार जो एक समय अज्ञात तीर्थस्थल था वह पुनः उद्धरित होकर लोक-प्रसिद्ध हुआ। मिट्टी के टीले की खुदाई में प्राचीन समय के वर्तन आदि बहुत ही ऐतिहासिक वस्तुएँ भी प्राप्त हुई वर्गीचे के निकटवर्ती खेत में से मंदिरों के चार पाँच प्राचीन पब्बासन भी प्राप्त हुए हैं। प्रतिष्ठाकार्य पूज्यपाद आचार्य देव श्रीमद् विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी महाराज -जो उस समय उपाध्यायजी थे-ने वि. सं. १९९४ मार्गशीर्ष शुक्ला १० को अष्ट दिनावधि अष्टाह्निका महोत्सव के साथ बड़े ही हर्षोरसाह से शुभ लग्नांग में नवनिर्मित मंदिर की प्रतिष्ठा की । तीर्थाधिपति श्री पद्मप्रभ स्वामीजी गादीनशीन किये गये और अन्य प्रतिमाएँ भी यथास्थान प्रतिष्ठित की गईं। प्रतिष्ठा के दिन नरेश ने दो हजार एक रुपये मंदिर को भेंट स्वरूप प्रदान किये और मंदिर की रक्षा का भार अपने ऊपर लिया सचमुच सर प्रतापसिंह नरेश की प्रभुभक्ति एवं तीर्थ प्रेम सराहनीय है। प्रतिष्ठा के समय मंदिर के मुख्य द्वार - गर्भगृह के दाहिनी ओर एक शिलालेख संगमरमर के प्रस्तर पर उत्कीर्ण किया गया। वह इस प्रकार है श्री लक्ष्मणी तीर्थ प्रतिष्ठा प्रशस्ति- तीर्थाधिप श्री पद्मप्रभस्वामी जिनेश्वरेभ्यो नमः । श्री विक्रमीय निधि वसुन्देन्दुत्तमे वत्सरे कालिकाऽसिलाइ मावस्यायां शनिवासरेऽति प्राचीने श्री लक्ष्मणी--जैन महातीर्थे बालु किरातस्य क्षेत्रतः श्री पद्मप्रभजिनादि तीर्थेश्वराणामनुपम प्रभावशालिन्योऽतिसुन्दरतभारचतुर्दश प्रतिमाः प्रादुरभवन् । तत्पूजार्थं प्रतिवर्ष वसति रूय्यक संप्रदानयुतं श्री जिनालय धर्मशाला रामादि निर्माणार्थं श्वेतांबर जैन श्री संघस्याऽलिराजपुराधिपतिना राष्ट्रकूट वंशीवेन के. सी. आई.ई. धारिणा सर प्रतापसिंह बहादुर भूपतिना पूर्व पश्चिमे ५११ दक्षिनोत्तरे ६११ फूट परिमित भूमिसमर्पणं व्याधावि, तीर्थरामे सुभट (पुलिस) नियोजित राजेन्द्र- ज्योति Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्राऽलीराजपुर निवासिना श्वेतांबर जैन संघेन धर्मशालाss राम कृपद्वय समन्वितं पुरातन जिनालयस्य जीर्णोद्धारमकारयत् / प्रतिष्ठा चास्य वेदनिधिनन्देन्दुतमे विक्रमादित्य वत्सरे मार्गशीर्ष शुक्ला दशम्यां चन्द्रवासरेऽतिबलवत्तरे शुभलग्न नवांशेऽष्टाह्निक महोत्सवैः सहाऽऽलीराजपुर जैन श्री संघेनैव सूरिशकचऋतिलकाय मानानां श्री सौधर्मबृहत्तपोगच्छावतंसकानां विश्वपूज्यानामाबालब्रह्मचारिणां प्रभु श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वराणामन्तेवासीनां व्याख्यान वाचस्पति महोपाध्याय बिरुदधारिणां श्रीमद्यतीन्द्र विजय मुनि पुङ्गवानां करकमलेन कारयत् / / इस प्रकार लक्ष्मणी तीर्थ पुनः उद्धरित हुआ। इस तीर्थ के उद्धार का संपूर्ण श्रेय श्रीमद्विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी महाराज को ही है। लक्ष्मणी तीर्थ का वर्तमान रूप यह तो अनुभव सिद्ध बात है कि जहाँ जैसी हवा एवं जैसा खानपान व वातावरण होता है वहाँ रहने वाले का स्वास्थ्य भी उसी के अनुसार होता है। आधुनिक वैद्य एवं डॉक्टरों का भी यही अभिप्राय है कि जहां का हवापानी एवं वातावरण शुद्ध होता है। वहाँ पर रहने वाले लोग प्रसन्न रहते हैं। लक्ष्मणी तीर्थ यद्यपि पहाड़ी पर नहीं है। फिर भी वहाँ की हवा इतनी मधुर, शीतल और सुहावनी है कि वहाँ से हटने का दिल ही नहीं होता। वहाँ का पानी पाचन शक्ति बर्धक है; इसलिए वहाँ रहने वाले का स्वास्थ्य भी अच्छा रहता है। इस समय तीर्थ की स्थिति बहुत अच्छी है। आवास, निवास और भोजन की सुविधा वहाँ उपलब्ध है। विशाल धर्मशाला है और भोजनशाला भी है। यहाँ पर पूज्य श्री राजेन्द्रसूरिजी महाराज-गुरु मंदिर है और पावापुरी जलमंदिर की संगमरमर प्रस्तर प्रतिकृति भी बनाई गई है। इसके अलावा श्रीपाल और मयणासुंदरी के जीवन प्रसंगों पर आधारित भित्ति पट्ट भी तैयार किये गये हैं; जो दर्शनीय हैं। लक्ष्मणीजी जाने के लिए दाहोद रेल्वे स्टेशन पर उतरना पड़ता है। दाहोद स्टेशन पश्चिम रेल्वे के बंबई-दिल्ली मार्ग पर स्थित है। दाहोद से अलिराजपुर के लिए बस-सेवा उपलब्ध है। अलिराजपुर से लक्ष्मणी के लिए भी बस सेवा उपलब्ध है। लक्ष्मणीजी तीर्थ में भी बिछौने-बर्तन आदि सब साधन यात्रियों के लिए उपलब्ध हैं। पूज्यपाद श्रीमद्विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी महाराज द्वारा उद्धरित लक्ष्मणी तीर्थ आज एक ऐतिहासिक एवं धार्मिक स्थान बन गया है। यहां पर जो गुरु मंदिर बनाया गया उसके निर्माण में अलीराजपुर की श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद की शाखा ने सराहनीय सहयोग दिया। परिषद के सदस्यों ने बड़ी मेहनत उठाई। उसी प्रकार श्री पन्नालालजी, श्री भूरालालजी, श्री जिनेंद्रकुमारजी, श्री कुंदनलाल काकडीवाला, श्री जयंतीलालजी श्री नथमलजी, श्री ओच्छवलालजी तथा श्री सुभाषचन्द्रजी आदि अलीराजपुर निवासियों का इस तीर्थ के प्रति लगनशील उत्साह है। तीर्थ व्यवस्था एवं देखभाल के लिए ये लोग समय समय पर तीर्थ की यात्रा करते रहते हैं। इसी लक्ष्मणी तीर्थ में श्री अखिल भारतीय राजेन्द्र जैन नवयुवक परिपद का दसवां अधिवेशन बड़ी धूमधाम से सम्पन्न हुआ। इस अधिवेशन में देश के कोने कोने से सैकड़ों प्रतिनिधियों ने भाग लिया था / सांडेराव के जिनमंदिर वैद्यराज चुनीलाल 2. श्री आदिजिन मंदिर ___ संवत् 1973 में उपाध्यायजी श्री मोहनविजयजी महाराज के उपदेश से यहां के वांकली वास में शाह मोतीजी वरदाजी फालनीया के परिवार द्वारा श्री आदि जिन प्रसाद का महर्त हआ था। संवत 1988 में माघ सुदी 6 के दिन शा. गणेशमलजी जवेरचन्दजी गुलाबचन्दजी के श्रेयार्थ जवेरचन्दजी के दत्तकपुत्र श्री ताराचन्दजी और उनकी माता हांसीबाई द्वारा इस मंदिर की प्रतिष्ठा की गई और ध्वजदण्ड चढ़ाया गया। सांडेराव एक प्राचीन नगर है और फालना रेल्वे स्टेशन से छह मील की दूरी पर स्थित है। सांडेराव का प्राचीन नाम संडेरक नगर है। संडेरगच्छ की स्थापना यहीं पर हई थी। यहां त्रिस्ततिक संप्रदाय के तीस घर हैं और राजेन्द्र भवन नामक उपाश्रय भी है। 1. श्री शांतिनाथ जिन मंदिर इस मंदिर में पहले भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा प्रतिष्ठित थी। लगभग एक हजार वर्ष पहले परम प्रभावक तपस्वी श्री यशोभद्रसूरीजी महाराज ने यह प्रतिमा जीर्ण हो जाने के कारण इसे उत्थापित कर इसकी जगह भगवान महावीर की प्रतिमा प्रतिष्ठित करवाई। पर यह प्रतिमा भी जीर्ण हो जाने के कारण लगभग पांच सौ साल पहले इसकी जगह पर मूल नायक श्री शांतिनाथ भगवान की मति प्रतिष्ठित की गई थी। यह मंदिर जमीन की सतह से छह फीट नीचे है और वर्षा का सब पानी जमीन के अंदर ही निकालने की चमत्कारिक व्यवस्था है। इस मंदिर के अधिष्ठायक श्री माणिभद्रजी का यहां बड़ा प्रभाव है। कई यात्री यहां यात्रार्थ आते रहते हैं / करीब पन्द्रह साल पहले शा. प्रतापमलजी जसाजी फालनीया के श्रेयार्थ उनके दत्तक पुत्र श्री केसरीमलजी ने एक विगढ़ युक्त चवरी बनाई है उसमें बीच में श्री पार्श्वनाथ भगवान के बिंब की ओर दो जिनबिब स्थापित किये जायेंगे। मंदिर के पीछे के बगीचे में शाह बरदीचन्दजी मियाचन्दजी थाणे की पावड़ीवालों ने समवसरण बनवाया है वहां श्री ऋषभदेव भगवान की पादुकाएं स्थापित की जायेगी। बी.नि. सं. 2503 Jain Education Intemational