Book Title: Tin Ardhamagadhi Shabdo ki Katha
Author(s): H C Bhayani
Publisher: Z_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf

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Page 2
________________ ७७२ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : चतुर्थ अध्याय २ उत्तुप्पिय प्रश्नव्याकरणसूत्र में तीसरे अधर्मद्वार में चौरिका के फलवर्णन में वधस्थान की ओर जाते समय चौरों की भयभीत दशा चित्रित करते कहा गया है: मरण-भउप्पण्ण-सेद-अायत-णेहुत्तप्पिय-किलिन्न-गत्ता । 'जिन के गात्र मरण-भय से उत्पन्न स्वेद के सहजात स्नेह से लिप्त और भीगे हुए हैं.' यहाँ पर 'उत्तुप्पिय' शब्द 'स्नेह-लिप्त' 'चिकना' इस अर्थ में आया है. विपाकश्रत में भी इसका प्रयोग हुआ है. ज्ञातधर्मकथा में, कल्पसूत्र में, गाथासप्तशती में 'चुपड़ा हुआ' 'लिप्त' इस अर्थ में, ओघनियुक्ति-भाष्य में 'स्निग्ध' इस अर्थ में तथा 'सेतुबन्ध' आदि में 'घी' इस अर्थ में 'तुप्प' शब्द प्रयुक्त है. हेमचन्द्राचार्य ने देशीनाममाला में 'तुप्प' के 'म्रक्षित' 'स्निग्ध' और 'कुतुप' अर्थ दिए हैं. अभिधानराजेन्द्रकोष में 'तुप्पग्ग' (जिसका अग्रभाग म्रक्षित है) और 'तुप्पोट्ठ' (जिसका ओष्ठ म्रक्षित है) दिए हैं. अप्रभंश साहित्य में 'तुप्प' के कई प्रयोग मिलते हैं. 'तुप्प' से नाम धातु 'उत्तुप्प' बना और इसके कर्मणि भूतकृदंत 'उत्तुप्पिय' का अर्थ है 'स्निग्ध पदार्थ से लिप्त'. ऐसे 'उद्' लगाकर क्रियापद बनाने की प्रक्रिया प्राकृत 'उधूलिय' (-उधूलित, धूलिलिप्त) उद्धृविय (उद्धूपित) इत्यादि में है. 'तुप्प' से इसी अर्थ में 'तुप्पलिय' (घृतलिप्त, चिकना) बना है, और 'गाथासप्तशती' में इसका प्रयोग है. 'तुप्प' से सिद्ध मराठी 'तूप' शब्द 'घी' अर्थ में अभी प्रचलित है. कन्नड़ में भी इसी अर्थ में 'तुप्प' शब्द व्यवहृत होता है. मूल मृक्षण वाचक 'तुप्प' चोप्पड' और 'मक्खण' (सं० म्रक्षण) शब्द बाद में 'घी' 'तेल' 'मक्खन' जैसे स्निग्ध पदार्थों के वाचक बन गए हैं. ३ पयण 'नायाधम्मकहा' के 'शैलक' अध्ययन में अशुचि वस्त्र की शुद्धि-क्रिया के वर्णन में कहा गया है कि ... .......के बाद वस्त्र को 'पयणं अरुहेई'. वृत्तिकार ने अर्थ किया है 'पाकस्थाने चूल्ल्यादौ वाऽऽरोपयति'. यह तो भावार्थ हुआ. क्योंकि वस्त्र को पाकस्थान में अथवा चूल्हे पर चढ़ाने से 'पचन' का सामान्य अर्थ समझा जाता है. चढ़ाने की क्रिया पर बल देने से लगता है कि यहाँ 'पयण' या पचन शब्द प्रक्रिया के अर्थ में नहीं, पर सावन के अर्थ में लेना उचित है. 'पचन' 'पकाने का पात्र'. चूल्हे पर कड़ाही में गरम पानी में मलिन वस्त्र को उबालने से उसकी स्वच्छता सिद्ध होती है. सूत्रकृताङ्गनियुक्ति में तथा जीवाजीवाभिगमसूत्र में 'पयण' या 'पयणग' का 'पचन-पात्र' के अर्थ में प्रयोग है ही. अर्वाचीन भाषाओं में गुजराती पेणी' (कड़ाही), 'पेणो' (कडाहा) एवं नेपाली पनी' (-मद्य निथारने का बरतन) मूलत: प्राकृत के 'पयण' सं० 'पचन' से निष्पन्न हुए हैं. अर्वाचीन प्रयोग के आधार पर किसी ने संस्कृत में भी' 'पचनिका' शब्द बना दिया है. इस तरह आगम-ग्रंथों के अनेक शब्दों के इतिहास की शृंखला प्रवर्तमान भाषाओं पर्यन्त अविच्छिन्न रूप में चली आई जान पड़ती है. Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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