Book Title: Terapanth ke Mahan Shravak
Author(s): Vijaymuni Shastri
Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf

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Page 8
________________ १०६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षण्ठ खण्ड थीं। श्रीचन्दजी गधैया, वृद्धिचन्दजी गोठी, मगनभाई जवेरी, ईसरचन्दजी चौपड़ा, केशरीचन्दजी कोठारी आदि कई व्यक्ति इनके साथी थे। सब समाज एवं शासन के परम हितैषी थे। शासन पर आने वाली विपत्तियों को दूर करने के लिए आधी रात को भी तैयार रहते थे। विरोधियों द्वारा निकाले गये भिक्षा-विरोधी-बिल, दीक्षा-प्रतिबन्धकबिल इन्हीं के प्रयासों से निरस्त हुए थे। इनकी सेवाएँ इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखी जायेंगी। स्वभाव से सरल, मदुभाषी, शासन और समाज के लिए सेवारत इनका व्यक्तित्व जन-जन के अनुकरणीय था । इनकी अविरल विशेषताओं के कारण समाज ने सं० १९६६ में इनको समाजभूषण की उपाधि से विभूषित किया। अपने नित्य नियमों में पक्के थे। अनेकों त्याग प्रत्याख्यान इन्होंने ले रखे थे। ८७ वर्ष की उम्र में इनका जीवन शान्त हुआ। (१६) श्री सुगनचन्दजी आंचलिया--गंगाशहर के श्री सुगनचन्दजी आंचलिया शासन-निष्ठ व्यक्ति थे । धर्मसंघ और समाज की इन्होंने बहुत सेवा की। ये आचार्य श्री तुलसी के कृपापात्र श्रावक थे। आचार्य श्री की लम्बी यात्राओं में ये प्रायः सेवा में रहते थे। इनकी पत्नी भी सदा इनके साथ रहती थी। इनको धार्मिक संस्कार अपने पूर्वजों से मिले थे। गलत कार्यों से सदा बचते रहते थे। अनीति का पैसा इन्हें स्वीकार्य नहीं था। इनके कुशल व्यवहार की सब पर अच्छी छाप थी। सब कुछ सुविधाएँ होने पर भी ये विषयों से अलिप्त ज्यों रहते थे। ३७ वर्ष की यौवनावस्था से ही इन्होंने ब्रह्मचर्य का पालन करना शुरू कर दिया था। ये धुन के धनी थे। जिस काम की जिम्मेदारी ले लेते उसे पूरा करके ही चैन लेते थे। ज्ञान-पिपासु थे। जब भी समय मिलता ये कुछ न कुछ अध्ययन करते रहते थे। स्वाध्याय इनके जीवन का अनिवार्य अंग था। प्रसिद्ध साहित्यकार जैनेन्द्रजी ने इनके लिए एक बार आचार्यश्री से कहा था-"गाँधीजी की तरह आपको भी एक जमुनालाल बजाज मिल गये हैं।" सामाजिक रूढ़ियों को इन्होंने कभी प्रश्रय नहीं दिया। मरने से पूर्व अपनी पत्नी को रोने, कपड़ा बदलने की इन्होंने मनाही कर दी थी। सं० २०१६ पौष सुदी ३ को इनकी मृत्यु हुई । समाज ने इनके निधन को अपूरणीय क्षति बताया। कुछ अन्य प्रमुख श्रावक (१५) श्री गुलाबचन्दजी लूणिया-ये जयपुर के निवासी थे। जयाचार्य का अग्रणी अवस्था में सं० १८८५ का चातुर्मास जयपुर में था। उस समय ५२० व्यक्तियों ने तेरापंथ की गुरुधारणा ली थी। उस समय इनके दादा गोरूलालजी भी तेरापंथी बने थे। गुलाबचन्द को धार्मिक संस्कार अपने पिताजी से मिले थे। इनके पिता गणेशमलजी एक प्रामाणिक और धर्मनिष्ठ थावक थे। इनके जवाहरात का धन्धा था। इनका व्यापारिक सम्बन्ध ज्यादा विदेशियों से रहता था। सन्तों से उनका सम्पर्क करवाते । व्यापार के साथ-साथ धर्म की दलाली भी करते रहते थे। गुलाबचन्दजी अच्छे गायक थे। खुद अच्छी रचनाएँ बनाते थे। कण्ठ मधुर था। आचार्य डालगणी इनके भजनों को रुचि से सुनते थे। जयपुर में कारणवश मुनि पूनमचन्दजी को गुणतीस वर्षों तक रुकना पड़ा था। उस समय अनेक व्यक्तियों ने थोकड़े आदि सीखे थे। श्री गुलाबचन्दजी ने भी तत्त्वज्ञान अच्छा हासिल किया था। आचार्यश्री के दर्शन साल में एक बार प्रायः कर लेते थे। कभी-कभी अनेक बार भी सेवा में उपस्थित हो जाते थे। (१८) श्री टीकमजी डोसी-टीकमजी डोसी मांडवी के रहने वाले थे। जोधपुर के श्रावक भेरूलालजी व्यास व्यापारार्थ एक बार मांडवी आये थे। उनके सम्पर्क से इन्होंने सम्यक् श्रद्धा स्वीकार की थी। इसके बाद इन्होंने मारवाड़ में स्वामी भीखणजी के दर्शन किये और २१ दिन तक वहाँ ठहरे। स्वामीजी से अपनी जिज्ञासाओं का समाधान पाया, उसके बाद स्वामीजी से गुरुधारणा ली। ये कच्छ वापिस लौट गये। सही तत्त्व को समझ लेने के बाद दूसरों को भी इन्होंने सम्यक् तत्त्व समझाया । प्रारम्भिक प्रयास में ही पच्चीस परिवारों ने सम्यक्त्व स्वीकार की। उस समय कच्छ प्रान्त में साधु-साध्वियों का समागम नहीं होता था। इसी कारण लोग उनको टिकमजी के श्रावक या गेरुपंथी के नाम से पुकारते थे। बाद में जब १८८६ में ऋषिराय का पदार्पण हुआ तब आचार्य श्री रायचन्दजी स्वामी से गुरु धारणा ली Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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