Book Title: Terapanth ke Drudhdharmi Shravak Arjunlalji Porwal
Author(s): Buddhmalmuni
Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf

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Page 3
________________ ६६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षण्ठ खण्ड - ro o re............................................................. कालान्तर में धार्मिकता की वृद्धि के साथ-साथ धन के प्रति उनकी उदासीनता बढ़ने लगी। उन्होंने स्वयं के लिए बीस हजार से अधिक पूंजी रहने का त्याग कर दिया। धार्मिक क्रियाओं में अधिक समय लगाते रहने के कारण दुकान पर बैठना भी प्रायः बन्द कर दिया। सारा व्यापार कार्य साझीदार ही देखा करते थे, अतः उनका विभाग बढ़ा दिया और अपना घटा लिया। घर का व्यय दुकान से निकलता रहे इतने मात्र से ही वे पूर्ण सन्तुष्ट थे। धार्मिक वृत्ति--अर्जुनलालजी प्रारम्भ से ही धार्मिक वृत्ति के व्यक्ति थे। सन्त-समागम, तत्त्व-चर्चा तथा सामायिक आदि क्रियाओं में उनका मन बहुत लगता था । अनेक ढालें तथा थोकड़े उनको कण्ठस्थ थे--त्याग और तपस्या के क्षेत्र में तो अपने समय के वे अंगुली-गणनीय व्यक्तियों में थे। उन जैसी दृढ़ आस्था और सेवापरायणता भी विरल व्यक्तियों में ही उपलब्ध होती है। कष्टसहिष्णुता में भी वे निरुपम थे। निरन्तर वर्धमानता की ओर अग्रसर होने वाली उनकी विराग-वृत्ति आश्चर्यजनक कही जा सकती है। उन्हें अपने तन और मन पर एक प्रकार से अवर्णनीय नियन्त्रण प्राप्त था। उनकी पत्नी की प्रकृति बहुत कठोर थी, फिर भी वे अपने सन्तुलन को जरा-सा भी इधर-उधर नहीं होने देते थे । तीन पुत्र तथा दो पुत्रियों के पिता होने पर भी सन्तान-मोह से वे बहुत ऊपर उठे हुए थे। उन जैसे धर्मनिष्ठ श्रावक क्वचित् ही देखने में आते हैं। स्वयं धार्मिक होने के साथ ही वे दूसरों को धार्मिक बनाने में भी बहुत रुचि रखते थे। जहाँ भी जाते वहाँ धार्मिक चर्चा छेड़ते। उनके द्वारा कही गई बात का प्रभाव बहुत शीघ्र होता था। एक बार दशहरा के अवसर पर राव साहब के निमन्त्रण पर वे मेरपुर गये । उस समय राव साहब के आदेशवर्ती अनेक ग्रामपति भी वहाँ एकत्रित थे। राव साहब ने अर्जुनलालजी से कहा--मैं आपको भूमि देना चाहता हूँ जहाँ भी इच्छा हो स्वयं चुनाव कर लीजिये।" अर्जुनलालजी नम्रता से निवेदन किया--"भूमि उसी के लिये लाभदायक होती है जो स्वयं उसकी देखभाल कर सकता हो, मेरे लिये यह सम्भव नहीं है, अतः क्षमा ही चाहता हूँ परन्तु यदि आप देना चाहे तो एक अन्य वस्तु की मांग कर सकता हूँ।" राव साहब उन पर बहुत प्रसन्न थे अतः कहने लगे-"आप जो भी मागेंगे, अवश्य दिया जायेगा।" अर्जुन लालजी ने तब अपनी बात को स्पष्ट करते हुए कहा-"आप की कृपा से वस्तुओं की मुझे कोई कमी नहीं है, मेरी मांग तो यह है कि आप और आपके सरदार शराब का परित्याग कर दें। एक साथ में पूरा नहीं छोड़ा जा सकता हो तो धीरे-धीरे अभ्यास बढ़ाते हुए छोड़ दें।" राव साहव तथा उपस्थित सभी सरदारों ने उनके कथन पर विचार किया और फिर राव साहव ने तो प्रतिमास चार दिन के लिये तथा अन्य १३ सरदारों ने आजीवन के लिए शराब का परित्याग कर दिया । अपनी पद्धति के अनुसार उन्होंने जल मँगाया और फिर प्रत्येक ने विधिवत् उसे जलांजलि दे दी। दृढ़ आस्थावान-देव, गुरु और धर्म के प्रति उनकी आस्था बहुत प्रबल थी। इसी आस्था के बल पर उन्होंने विपत्तियों तथा कष्टों के अनेक सागर पार किये थे, स्वामी भीखणजी के नाम को तो उन्होंने मन्त्रवत् अपना लिया था। हर कठिन परिस्थिति में उनके मुख से सर्वप्रथम वही नाम निकलता था। एक बार वे वास से गोगुन्दा जा रहे थे । पूरा मार्ग पहाड़ियों और जंगलों में से ही गुजरता था। एक पहाड़ी नाले के मार्ग से ज्यों ही वे मोड़ पर पहुँचे तो देखा कि उसी मोड़ पर सामने से एक भाल आ पहुँचा है, मृत्यु के और उनके बीच में केवल ५-७ कदमों की ही दूरी रह गई थी। स्वामीजी का नाम जपते हुए उन्होंने अपनी स्थिति को समझने का प्रयास किया तो पाया कि दायें-बायें दोनों ओर पहाड़ियों का चढ़ाव था। पीछे छोड़ आये चढ़ाव पर भी भागते हुए चढ़ने की उनमें शक्ति नहीं थी। वे ठिठककर खड़े रह गये । भालू ने भी उनको देखा और फिर बाई पहाड़ी पर चड़ता हुआ जंगल में घुस गया। मार्ग को निरापद देखकर अर्जुनलालजी अपने गन्तव्य की ओर आगे बढ़ गये । एक बार उन्होंने १४ दिनों की तपस्या का पारणा किया। पारणा के लिये बनाई गई ऊकाली में काली मिर्च के स्थान पर भूल से कोई जुलाब का चूर्ण डाल दिया गया । उससे उन्हें खून के दस्त होने लगे। तीन ही दिनों में उनकी हालत बहुत खराब हो गई । एलोपेथी औषध लेने का उन्हें त्याग था अत: गोगुन्दा के एक वैद्य का उपचार चालू किया गया । वैद्य ने जो औषध दी उसकी एक-एक मात्रा उन्हें प्रति घण्टा लेनी थी, दिन में तो वह क्रम चलता रहा परन्तु -0 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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