Book Title: Terapanth ke Drudhdharmi Shravak Arjunlalji Porwal
Author(s): Buddhmalmuni
Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf

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Page 2
________________ तेरापंथ के दृढ़धर्मी श्रावक : अर्जुनलालजी पोरबाल रूठ गया और सायंकालीन भोजन किये बिना भूखा ही सो गया। रात्रि में अचानक उसके पेट में पीड़ा प्रारम्भ हुई और वह किसी भी उपचार से शान्त नहीं हुई। प्रातः काल होने से पूर्व ही उसकी मृत्यु हो गई । ६५. उस दुर्घटना से अर्जुनलालजी को बड़ा आघात लगा -भाई के साथ किये गये अपने रूखे व्यवहार से उन्हें बड़ी आत्म-ग्लानि हुई । उन्होंने उस दिन के पश्चात् कभी चूरमा नहीं खाया। फूली के दिन फिर कभी उन्होंने भोजन भी नहीं किया । प्रतिवर्ष उस दिन को उन्होंने भाई की स्मृति में उपवास करके ही मनाया । भाई का विवाह - मेवाड़ में उन दिनों लड़कियों के रुपये लिए जाते थे, अतः साधारण आर्थिक स्थिति वाले लड़कों का विवाह प्रायः कठिनता से ही हो पाता था। अर्जुनलालजी के छोटे भाई सोहनलालजी लगभग २५ वर्ष के हो गये फिर भी उनके लिए कोई सम्बन्ध नहीं मिल पाया। एक दिन उनकी माता ने अर्जुनलालजी को व्यंगपूर्वक कहा - "छोटा भाई जवान होकर भी कुँवारा घूम रहा है, इसकी न तुझे कोई चिन्ता है और न लज्जा, तेरा घर बस गया इसलिए तुझे फुरसत ही कहो रह गई जो भाई की बात सोचे।" माँ के उस व्यंग्य बाण ने उनके हृदय पर ऐसी चोट की कि वे तिलमिला उठे । उन्होंने उसी समय यह प्रतिज्ञा कर ली कि भाई का विवाह करने से पूर्व वे अपनी पत्नी से बोलेंगे तक नहीं। उसी दिन से वे उस कार्य के पीछे पूरी शक्ति से लग गये। लगभग तीन महीनों का समय पूर्ण होते-होते उन्होंने भाई का विवाह सम्पन्न कर दिया । अधिकार त्याग - पिता रायचन्दजी ने एक बार दोनों भाइयों से यह वचन लिया कि जो भाई वास से बाहर जाकर पृथक् कार्य करना चाहेगा वह यहाँ की चल तथा अचल सम्पत्ति में से कोई भाग नहीं लेगा । पिता की मृत्यु के पश्चात् वास की दुकान का कार्य सोहनलालजी देखने लगे और अर्जुनलालजी ने गोगुन्दा निवासी मेरीलालजी कोठारी के साझे में उदयपुर में दुकान कर ली। वह साझेदारी लगभग तीन वर्ष तक चली। उसके पश्चात् खाखड़ निवासी टेकचन्दजी पोरवाल के साथ साझा किया उसमें उन्हें काफी घाटा उठाना पड़ा। उस समय तक दोनों भाइयों का आयव्यय साथ में ही चलता था। घाटा लगने पर सोहनलालजी ने उसमें कोई भी सहयोग देने से इन्कार कर दिया । फल यह हुआ कि अर्जुनलालजी को वह घाटा तो अकेले उठाना पड़ा ही, साथ में वास की समस्त सम्पत्ति के अधिकार का भी परित्याग करना पड़ा । 1 आर्थिक उतार-चढ़ाव अर्जुनलालजी की नीति सदैव विशुद्ध रही थी पाटा लगने पर भी उसमें कोई परि वर्तन नहीं आया, ऋण-शोधन के लिये उन्होंने अपनी पत्नी के प्रायः सभी आभूषण बेच दिये इतने पर भी वे पूर्ण रूप से ऋण मुक्त नहीं हो पाये। अवशिष्ट ऋण उतारने के लिए वे गांवों के व्यापारियों में उगाही करने बाहर चले गये। उन्होंने संकल्प कर लिया कि जब तक पूरा ऋण नहीं उतार दूंगा तब तक उदयपुर नहीं आऊँगा, वे गाँवों में उधार दिये गये माल का मूल्य उगाहने और वहीं से माँगने वालों को भेज देते। लगभग चार वर्षों तक उन्हें अनिकेतव सी होकर विभिन्न गाँवों में भटकते रहना पड़ा। अपने संकल्प की पूर्ति के पश्चात् ही वे उदयपुर में वापस आये। उस समय उन्हें बड़ी कठिन परिस्थितियों में से गुजरना पड़ रहा था, न पास में कोई कार्य था और न पूँजी ही । किसी से ऋण लेने की भी उनकी इच्छा नहीं थी, घर का व्यय चलाने के लिए तब उन्होंने सट्टा करना प्रारम्भ कर दिया। धीरे-धीरे उनके पास पुनः कुछ पूँजी एकत्रित हो गई। संवत् १६६२ में आचार्य श्री कालूगणी ने उदयपुर में चातुर्मास किया। उस समय मुनि श्री मगनलालजी ने उनको सटटे का त्याग करवा दिया, उन्होंने तब फिर से कपड़े की दुकान प्रारम्भ कर दी । Jain Education International धन के प्रति उनके मन में तीव्र लालसा कभी नहीं रही, फिर भी दुकान में अच्छी आय होते रहने के कारण वे धनी बन गये । व्यापार के अतिरिक्त ब्याज के कार्य से भी उन्हें अच्छा लाभ मिलने लगा । मेरपुर रावजी तो आवश्यकता होने पर दस-बीस हजार रुपये तक उन्हीं के यहाँ से लेते थे। वे उनके सौजन्य और सत्य व्यवहार पर बड़े थे। उनकी सम्पन्नता का लाभ अन्य भी अनेक व्यक्तियों को विभिन्न प्रकार से मिलता रहा, किसी को सहयोग के रूप में तो किसी को रोजगार के रूप में । मुग्ध For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

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