Book Title: Tattvartha Sutra Jainagam Samanvay
Author(s): Atmaram Maharaj, Chandrashekhar Shastri
Publisher: Lala Shadiram Gokulchand Jouhari

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Page 292
________________ २७४ ] तत्वार्थ सूत्र जैनाऽऽगम समन्वय : उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग (दान), उत्तम आकिंचन्य और उत्तम ब्रह्मचर्य यह दश प्रकार के धर्म हैं । बारह भावनाएं' - - - अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, श्रस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ और धर्मस्वाख्यातत्व इनका बारम्बार चिन्तवन करना सो अनुप्रेक्षा हैं । बाईस परीषय जय ८ - रत्नत्रय रूप मार्ग से च्युत न होने और कर्मों को निर्जरा के लिये परीसह सहनी चाहिये । ९ - १ क्षुधा, २ तृषा, ३ शीत, ४ उष्ण, ५ दंशमशक, ६ नाग्न्य, ७ अरति, ८ स्त्री, ९ चर्या, १० निषद्या, ११ शय्या, १२ आक्रोश, १३ बघ, १४ याचना, १५ अलाभ, १६ रोग, १७ तृणस्पर्श, १८ मल, १६ स त्कारपुरुस्कार, २० प्रज्ञा, २१ अज्ञान और प्रदर्शन यह बाईस परीषह हैं। १० – सूक्ष्म सांपराय नामक दशवें गुणस्थान वालों के तथा छद्मस्थवीतराग अर्थात् उपशांत कषाय नामक ग्यारहवें और क्षीणकषाय नामक बारहवें गुणस्थान वालों के चौदह परीषह होती हैं । ११ – तेरहवें गुणस्थानवर्ती जिन अर्थात् केवली भगवान के ग्यारह परीषह होती हैं । १२ – स्थूल कषाय वाले अर्थात् छटे, सातवें, आठवें और नौवें गुणस्थान वालों के सब परीषह होती हैं । १३ - प्रज्ञा और ज्ञान परीषह ज्ञानावरण कर्म के उदय होने पर होती हैं । १४ - अदर्शन परीषह दर्शनमोह के उदय से और अलाभ परीषद अन्तराय कर्म के उदय से होती हैं । १५ – नाग्न्य, अरति, स्त्री, निषद्या, भाक्रोश, याचना और सत्कारपुरुस्कार यह सात परीषद चारित्रमोहनीय कर्म के उदय से होती हैं । १६ – शेष [ क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, दंशमशक, चर्य्या, शय्या, बघ, रोग,

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