Book Title: Tattvamasi Vakya
Author(s): Damodar Shastri
Publisher: Z_Sadhviratna_Pushpvati_Abhinandan_Granth_012024.pdf

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Page 7
________________ साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ जान लेते हैं, किन्तु कोई अन्धा पूर्ण समग्र ज्ञान नहीं प्राप्त कर पाता, क्योंकि पूर्ण समग्र दर्शन खुली आँखों से, उदार / व्यापक दृष्टिकोण से देखने पर ही सम्भव है । इस प्रकार, जैनदृष्टि से वेदान्तदर्शन एक दृष्टिकोण है, जिसे ग्रहण किए बिना पूर्ण सत्य का ज्ञान सम्भव नहीं । इतना ही नहीं, कई विषयों में वेदान्त व जैन दर्शन दोनों की विचार-समता दृष्टिगोचर होती है । वेदान्तदर्शन, विशेषकर शांकर अद्वैतदर्शन, सामान्यग्राही है । उसकी घोषणा है - एकमात्र ब्रह्म ही पारमार्थिक सत्य है - 'ब्रह्म सत्यं जगत् मिथ्या' । जैनदर्शन में भी ब्रह्मस्थानीय 'समस्त पदार्थव्यापी' एक परम सत्ता की कल्पना की गई है । 40 किन्तु जहाँ शांकर वेदान्तसम्मत ब्रह्म 'प्रज्ञानघन' है, " वहाँ जैनसम्मत उक्त परमसत्ता चिदचिद् उभयद्रव्यव्यापी है । द्रव्यार्थिक नय से द्रव्य का कथन करते समय, समस्त गुण-भेद की, तथा गुण-गुणीभेद की वासना मिट जाती है, और एक 'अखण्डद्रव्य' प्रतीति में आता है । 42 इस प्रकार, जैनदर्शन तथा वेदान्त दर्शन (शांकर) — दोनों ही 'एक तत्त्व' की कल्पना में सहभागी दृष्टिगोचर होते हैं । ब्रह्म (परमतत्त्व ) और जैनदृष्टि 44 सभी द्रव्यों / पदार्थों की सार्थकता आत्म द्रव्य की सिद्धि में निहित है, 43 और चूँकि आत्मा सभी तत्त्वों में उत्कृष्ट है, " अतः वही 'परमतत्त्व' है । शुद्धात्मा-प्राप्ति ही निर्वाण है, इसलिए जैन परम्परा निर्वाण को भी 'परमतत्त्व' कहा गाया है ।" जीवादि संसारी बाह्य तत्त्व हेय हैं, 17 और 'परमतत्त्व' ही उपादेय और आराध्य है ।" यहाँ 'परमात्म तत्त्व' से शुद्धात्मा (संसार-मुक्त ) ग्राह्य है, संसारी आत्मा नहीं 149 शुद्धात्मा को ही जैन शास्त्र में 'ब्रह्म', 'परब्रह्म' और 'सहज तत्त्व'" भी कहा गया है । आत्म-तत्त्व के ज्ञात होने पर कुछ ज्ञातव्य नहीं रह जाता, अतः आत्म-ज्ञान की महत्ता सर्वोपरि है - इस विषय में उपनिषदों तथा जैनदर्शन का समान मन्तव्य है । 39. पद्मनन्दि पंच. 4/7, तुलना -- यशोविजयकृत द्वात्रिंशिका - 16/25 40. पंचास्तिकाय - 8, प्रवचनसार - 2 / 5, सर्वार्थसिद्धि-1 /33, पंचाध्यायी-1 /8, 264, तत्त्वार्थभाष्य- 1/35 [तुलना - मंत्रायणी उप. 4/6, छान्दोग्य उप. 6 / 2 / 1] 41. बृहदा. उप. 2/4/9 (शांकरभाष्य ) | 43. अध्यात्मसार - 18/3 45. कार्तिकेयानुप्रेक्षा - 204, पद्मनन्दि पंच. 4/ 44, 23/12 42. प्रवचनसार टीका - 1 /6 (तत्त्वदीपिका) । 44. नियमसार - 92 46. योगदृष्टिसमुच्चय- 129, 132 48. पद्मनन्दि पंच - 4 / 44, 60, 75, 22/1-2 47. नियमसार - 38 49. समयसार - 38 पर तात्पर्यवृत्ति टीका 50. नियमसार कलश - 25, मोक्षप्राभृत-2, ज्ञानसाराष्टक 8/7, 2 / 4, 16/6, परमात्मप्रकाश-171 51. नियमसार कलश - 176, 184, 52. उपदेशसाहस्री - सम्यग्मति प्रकरण-1-7, बृहदा. उप. 2 / 4 / 13-14, 4/5/6, 4/4/12, श्वेता. उप. 1/12, केनोप. 2 / 13, मुंडकोप. 1 / 1 /3-6 53. कार्तिकेयानुप्रक्षा - 4 / 79, भगवती आराधना, 1/9, पद्मनन्दि पंच. 4 / 20-21, अध्यात्मसार - 18 / 2-3, समयसार गाथा - 15 पर तात्पर्यवृत्ति 'तत्त्वमसि वाक्य' : डॉ० दामोदर शास्त्री | ८५ www.2

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