Book Title: Tattvamasi Vakya Author(s): Damodar Shastri Publisher: Z_Sadhviratna_Pushpvati_Abhinandan_Granth_012024.pdf View full book textPage 6
________________ साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ जैनदृष्टि से प्रत्येक भारतीय दर्शन किसी न किसी 'नय' से सम्बद्ध है । एक ओर मीमांसक, अद्वैतवादी व सांख्य दर्शन अभेदवादी द्रव्यास्तिक नय को अंगीकार करते हैं, तो दूसरी ओर बौद्धदर्शन भेदवादी पर्यायास्तिक नय को 125 चार्वाकदर्शन व्यवहार नय को, बौद्ध ऋजुसूत्र नय को, नैयायिकवैशेषिक नैगम नय को, तथा सांख्य व अद्वैतवादी संग्रहनय को अंगीकार कर वस्तु तत्त्व का निरूपण करते हैं ।26 इन सभी नयों तथा उनके आश्रयित दर्शनों के प्रति जैनाचार्यों की अपनी तटस्थ दृष्टि रही है । इतना ही नहीं, कुछ स्थलों में उनके प्रति पूर्ण आदर भी व्यक्त किया है। जैनाचार्यों ने स्पष्ट कहा है - सभी शास्त्रकार महात्मा तथा परमार्थ (उच्च) दृष्टि वाले हैं, वे मिथ्या बात कैसे कह सकते हैं ? वस्तुतः उनके अभिप्रायों में भिन्नता है, इसलिए उनके कथन में परस्पर भिन्नता दृष्टिगोचर होती है, क्योंकि जितने अभिप्राय होंगे उतनी दृष्टियाँ होंगी और तदनुरूप उतने ही वचन या व्याख्यान के प्रकार होंगें । 28 सच्चा जैनी सभी दर्शनों की एकसूत्रता को ध्यान में रखता है । शास्त्रज्ञ वही है जो सभी दर्शनों को समान आदर से देखता है ।29 सच्चा जैनी अभिमानवश अन्य धर्मों का तिरस्कार नहीं करता ।" वह सभी दृष्टियों को मध्यस्थता से ग्रहण करता है । 31 मदोद्धत होकर अपने ज्ञान व मत / सम्प्रदाय की महत्ता की प्रशंसा तथा दूसरे की निन्दा से वह दूर रहना पसन्द करता है । आचार्य सिद्धसेन ने स्पष्ट सुझाव प्रस्तुत किया कि दूसरे दर्शनों/ धर्मो के सिद्धान्तों को जानना चाहिए, और जान कर सत्य को पुष्ट करने का प्रयास करना चाहिए, किन्तु उनका खण्डन करने का विचार कदापि उचित नहीं । व्यर्थ या शुष्क वादविवाद से हमेशा बचना चाहिए, क्योंकि उससे किसी तत्त्व तक पहुँचना सम्भव नहीं होता । 24 जैन मत बुद्ध तत्त्व (परमपद / परमात्मतत्त्व ) की प्राप्ति मध्यस्थ / उदार दृष्टिकोण वाले को ही होती है । 35 मध्यस्थ भाव के साथ किया गया एक पक्ष का ज्ञान भी सार्थक है, अन्यथा करोड़ों शास्त्रों के पढ़ने से भी कोई लाभ नहीं 136 कठिनाई यह है कि दर्शन अभिप्राय भेदों पर ध्यान न देकर परस्पर विवाद में उलझ जाते हैं । 37 जब भी कोई दर्शन दुराग्रहवाद से ग्रस्त हो जाता है, अपनी ही प्रशंसा और दूसरों को अप्रामाणिक बताकर उनकी निन्दा करता है, तो ज्ञान व कर्म की ग्रन्थियों को सुलझाने की अपेक्षा और अधिक उलझा देता है ।38 जैसे कई अन्धे व्यक्ति किसी विशालकाय हाथी को स्पर्श कर, पृथक्-पृथक् आंशिक रूप से तो 25. स्याद्वाद मंजरी, का. 14 26. जैनतर्कभाषा - नयपरिच्छेद, तथा स्याद्वाद मंजरी, का. 14 । 28. सन्मतितर्क - 3 / 47 30. रत्नकरण्ड श्रावकाचार - 26 32. प्रशमरतिप्रकरण ( उमास्वाति ) – 91-109 27. शास्त्रवार्तासमुच्चय - 3 / 15 29. अध्यात्मोपनिषद् - 1 /70 31. ज्ञानसार ( यशोविजय ) - 32/2 33. द्वात्रिंशिका 8 / 19, अष्टक प्रकरण - 12/1-8 34. यशोविजय कृत द्वात्रिंशिका - 8 / 18, 23 / 1-17, 32, अध्यात्मोपनिषद् - 1/74 35. ज्ञानसाराष्टक - 15 / 6, समयसारकलश – 341, 248-261 36. अध्यात्मोप. 1/73 38. विशेषावश्यकभाष्य - 62, सूत्रकृतांग - 1 / 1 / 23, पद्मनन्दि पंच. 4/5 ८४ | चतुर्थ खण्ड : जैन दर्शन, इतिहास और साहित्य 37. सिद्धसेनकृत द्वात्रिंशिका - 20/4Page Navigation
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