Book Title: Tarkasangraha
Author(s): Vairagyarativijay
Publisher: Pravachan Prakashan Puna

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Page 9
________________ १७ स्वतन्त्र विषयों की भी चर्चा फक्किकाकार ने सरलता से की है। दूसरी ओर जहाँ दीपिकाकार ने मूल की स्पष्टता के कारण अनावश्यक विस्तार नहीं किया है वहाँ फक्किकाकार ने भी टीका का निरर्थक विस्तार नहीं किया है उदाहरणार्थ- गुणविभाग, कर्मविभाग, तथा सामान्यविभाग जैसे विषयों की चर्चा फक्किकाकार ने नहीं की है। इस तरह मूलग्रन्थ में अस्पष्ट किन्तु आवश्यक ऐसे सभी विषयों की अनावश्यक चर्चा न करके फक्किकाकारने टीका कैसी होनी चाहिये उसका एक अच्छा आदर्श रक्खा है । यद्यपि फक्किका की अनेक हस्तलिखित प्रतियाँ भिन्नभिन्न ज्ञानभण्डारों में उपलब्ध हैं फिर भी मैंने इस सम्पादन में अत्यन्त प्राचीन ऐसी बिकानेर के भण्डारों की तीन प्रतियों का और अर्वाचीन प्रतियों में अहमदाबाद के एक भण्डार की प्रतिका उपयोग किया है। पाठान्तर अधिक न होने से अन्य सब प्रतियों का उपयोग जरूरी नहीं समझा है। इस सम्पादन में उपयोग की हुई प्रतियों का परिचय नीचे दिया जाता है । (१) 'अ' - यह प्रति बिकानेर के अबीरचन्द भण्डार की है। इसका सूचीपत्र क्रमाङ्क ८३, पत्रसंख्या २६, और प्रत्येक पत्रकी एक ओर ११ पंक्ति है तथा प्रत्येक पंक्ति में ४५ अक्षर हैं। प्रतिका नाप १०x४|| " है । उपयुक्त प्रतियों में यह प्रति प्राचीनतम है । अक्षर स्पष्ट हैं। संवत् १८२४ में अर्थात् श्रीक्षमाकल्याणजी के जीवनकाल दरम्यान में ही लिखी गई है। यह प्रति उपयुक्त छोटे छोटे टिप्पणों से भरपूर है इससे ऐसा अनुमान सहज होता है कि यह प्रति कोई शिष्य ने श्रीक्षमाकल्याणजी से पढ़ी हो । इतने टिप्पण अन्य किसी प्रति में नहीं है। फिर भी इस प्रति में कहीं कहीं पाठ भ्रष्ट हो गये हैं । प्रति शुद्ध है इस लिये आदर्श भी इसी प्रतिका रक्खा है । फिर भी अन्य प्रतियों के शुद्धतर पाठ मूलग्रन्थ में समाविष्ट किये गये हैं। प्रतिलेखक का नाम स्थान और तिथि भी इसमें दिये हैं यह इस प्रति की विशेषता है । (२) 'दा' - यह प्रति बिकानेर के दानसागर भण्डार की है। इसका १८ सूचीपत्र क्रमाङ्क १८०६, पत्रसंख्या १४, प्रत्येक पत्र की एक ओर पं. १५ तथा प्रत्येक पंक्ति में अक्षर ५३ हैं। प्रति का नाप १०४४।" है । अक्षर छोटे होने पर भी स्पष्ट हैं । उपयुक्त प्राचीन प्रतियों में यह भी एक प्राचीन प्रति है। अक्षर स्पष्ट हैं। यह भी संवत् १८२८ में लिखी गई है इसका पता चार श्लोक के कलापक के अन्तिम श्लोक से चलता है। थोड़े से टिप्पण इस प्रति में भी हैं। (३) 'म' - यह प्रति भी बिकानेर के महिमाभक्ति भण्डार की है । इसका सूचीपत्र क्रमाङ्क १५०७, पत्रसंख्या २५, प्रत्येक पत्र की एक ओर पं. १३ और प्रत्येक पंक्ति में अक्षर ३८ हैं । अक्षर बड़े और स्पष्ट हैं । प्रति का नाप १०x४" है । यह प्रति सम्भव है कि 'दा' प्रति की नकल हो. क्योंकि जो 'दा' प्रति के टिप्पण हैं वही इस प्रति के भी हैं। नकल होने पर भी यह अर्वाचीन नहीं है । अन्त में इस प्रति में 'दा' प्रति से 'इति उपाध्याय श्रीक्षमाकल्याणगणिविरचिता तर्कसंग्रहसवृत्तिफक्किका समाप्ता' इतना अंश अधिक है। प्रतिलेखक का नाम नहीं है। यह भी सम्भव है कि 'म' की नकल 'दा' हो। जो कुछ भी हो 'दा' और 'म' में कोई विशेष फर्क नहीं है । कलापक के अन्त में दोनो में 'सुरतबिन्दरे इति शेषम् ' दिया है । (४) 'वि' - यह प्रति अहमदाबाद के विजयदानसूरि ज्ञानमन्दिर के संग्रह की है। इसका सूचीपत्र क्रमाङ्क ८८० है, पत्रसंख्या १७, प्रत्येक पत्र की एक ओर पंक्ति १५ तथा प्रत्येक पंक्ति में अक्षर ४५ हैं। अक्षर मध्यम और स्पष्ट है। प्रति का नाप ११ || ५" है । उपयुक्त प्रतियो में यह सबसे अर्वाचीन है। सम्भव है कि 'दा' और 'म' प्रति में से किसी एक की नकल हो, क्योंकि चार श्लोक का कलापक पूर्ण दिया गया है। 'सुरत बिन्दरे इति शेषम् ' इतना नहीं है। इसकी जगह 'लि. व्यास मोवनलाल नागोर' इतना अंश है। अर्थात् नागोर के व्यास

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