Book Title: Tapomarg ki Shastriya Sadhna
Author(s): Hastimal Acharya
Publisher: Z_Jinvani_Acharya_Hastimalji_Vyaktitva_evam_Krutitva_Visheshank_003843.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 2
________________ • प्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा. इसके विपरीत हिंसादि से अविरत रहने पर जीव आस्रव से राग द्व ेष के कारण कर्म का संचय करता है । उस संचित कर्म को भिक्षु जिस प्रकार नष्ट करता है, उसे एकाग्र मन होकर मेरे पास श्रवण करो । जहा महातलागस्स, सन्निरुद्धे जलागमे । उस्सि चरणाए तवणाए, कमेणं सोसणा भवे || ५ || पहले दृष्टान्त द्वारा समझाते हैं - जिस प्रकार किसी बड़े तालाब के जलागम द्वार रोकने पर सिंचाई और ताप के द्वारा क्रमशः सारा पानी सूख जाता है, भूमि निर्जल हो जाती है । एवंतु संजय सावि, भव कोडी सचियं कम्मं अब तप के प्रकार कहते हैं तालाब की तरह संयमी आत्मा के भी पाप कर्म का प्रस्रव रुक जाने पर करोड़ों जन्मों का संचित कर्म तपस्या से निर्जीण हो जाता है अर्थात् तपस्या के द्वारा जन्म-जन्मान्तर के भी संचित कर्म नष्ट हो जाते हैं । Jain Educationa International पावकम्म निरासवे । तवसा निज्जरिज्जइ || ६ || -: ३३५ सो तवो दुविहो वुत्तो, बाहिरभंतरो तहा । बाहिरो छव्विहो वृत्तो, एवमव्भंतरो तवो || ७ || पूर्वोक्त गुण विशिष्ट वह तप दो प्रकार का कहा गया है, यथा - बाह्य तथा ग्राभ्यन्तर । बाह्य तप छः प्रकार का है ऐसे आन्तर तप भी छः प्रकार का कहा गया है । भौतिक पदार्थों के त्याग से शरीर एवं इन्द्रिय पर असर करने बाला बाह्य तप और मन जिससे प्रभावित हो, उसे प्रान्तर तप समझना चाहिये । दोनों एक दूसरे के पूरक होने से आवश्यक हैं । प्रथम बाह्य तप का विचार करते हैं : अणसण- मूणोयरिया, भिक्खायरिया य रसपरिच्चाप्रो । कायकिलेसो संलीणया य बज्भो तवो होइ ||८|| प्रथम अनशन-आहार त्याग, २. ऊनोदर - श्राहार आदि में श्रावश्यकता से कम लेना, ३. भिक्षाचरिका, ४. मधुरादि रस का त्याग, ५. कायक्लेश-प्रासन, लुंचन आदि ६. संलीनता - इन्द्रियादिक का गोपन इस प्रकार बाह्य तप छः प्रकार का होता है । प्रत्येक का भेद पूर्वक विचार : For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8