Book Title: Tapomarg ki Shastriya Sadhna Author(s): Hastimal Acharya Publisher: Z_Jinvani_Acharya_Hastimalji_Vyaktitva_evam_Krutitva_Visheshank_003843.pdf View full book textPage 6
________________ • प्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा. • ३३६ अन्नण विसेसेणं, वण्णेणं भावमणुमुयन्ते उ । एवं चरमाणो खलु, भावोमाणं मुणेयव्वं ।।२३।। इस प्रकार अन्य भी वर्णादि विशेषों में अमुक प्रकार से मिले तो ही लेना, इस रूप से भिक्षा करना भाव अवमोदर्य कहलाता है । भाव अवमोदर्य और पर्यव अवमोदर्य का भेद दिखाते हुए कहते हैं: दव्वे खेते काले, भावम्मि य आहिया उजे भावा । एएहिं जोमचरो, पज्जवचरमो भवे भिक्खू ।।२४।। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव में जो एक ग्रास आदि कहे गये हैं, उन द्रव्यादि सब पर्यायों से अवम चलने वाला साधक पर्यवचरक होता है । अट्ठविहगोयरग्गं तु, तहा सत्तेव एसणा। अभिग्गहा य जे अन्न, भिक्खायरियमाहिया ।।२५।। आठ प्रकार की गोचरी तथा सात प्रकार की एषणाएँ, इस प्रकार अन्य जो अभिग्रह किये जाते हैं, उसको भिक्षाचरिका रूप तप कहते हैं। इसका दूसरा नाम वृत्ति संक्षेप भी है। खीरदहिसप्पिमाई, पणीयं पाण भोयणं । परिवज्जणं रसाणं तु, भणियं रसविवज्जणं ।।२६।। दूध, दही, घृत आदि रसों को प्रणीत पान भोजन कहते हैं, इस प्रकार विभिन्न रस का त्याग रसवर्जन नाम का तप कहा गया है। ठाणावीरासणाईया, जीवस्स उ सुहावहा । उग्गा जहा धरिज्जन्ति, कायकिलेसं तमाहियं ।।२७।। वीरासन आदि जो साधक को सुखद हो वैसे आसन से स्थिर रहना और केश लुंचन आदि उग्र कष्टों को समभाव से धारण करना, इसको कायक्लेश तप कहा गया है। अब प्रतिसलीनता का विचार करते हैं: एगन्त मणावाए, इत्थी-पसु-विवज्जिए। सयणासण सेवणया, विवित्त सयणासणं ।।२८।। स्त्री पशु आदि रहित एकान्त और स्त्री आदि का गमनागमन जहाँ नहीं हो, वैसे स्थान में शयनासन करना विविक्त शय्यासनरूप तप होता है। इन्द्रियकपाय और योग संलीनता के भेद से इसके अन्य प्रकार भी होते हैं। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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