Book Title: Tap Ek Mahattvapurna Anushthan
Author(s): Sumermalmuni
Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf

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Page 3
________________ तप : एक महत्त्वपूर्ण अनुष्ठान २४७ . ........................................................................... लगते हैं, जिसमें इकसठ दिन पारणे के और चार सौ सिताणवें दिन तप के होते हैं। पारणे के भेद से इसकी भी चार परिपाटी होती हैं। आयंबिल वर्धमान तप-इसमें एक आयंबिल से क्रमशः चढ़ते-चढ़ते एक सौ आठ तक चढना होता है। इसका क्रम इस प्रकार है--एक आयंबिल, फिर एक उपवास, फिर दो आयंबिल फिर एक उपवास, फिर तीन आयंबिल फिर एक उपवास इस प्रकार प्रत्येक संख्या की समाप्ति पर एक उपवास करके अगली संख्या के आयंबिल प्रारम्भ कर दिए जाते हैं । आयंबिल में भी सिर्फ एक धान की बनी वस्तु और पानी के अतिरिक्त कुछ नहीं लिया जा सकता, नमक भी नहीं होना चाहिए। इसी प्रकार लघुसर्वतोभद्र, महासर्वतोभद्र, भद्रोत्तर प्रतिमा का वर्णन भी अंतकृत दशांगसूत्र में मिलता है। इसके अतिरिक्त भिक्ष की बारह प्रतिमाओं को भी तपप्रधान माना गया है। धूप में आतापना लेना और सर्दियों में अनावृत रहना काया-क्लेश निर्जरा के भेद के अन्तर्गत बाह्य तप में माना है। ___ आगम में आई हुई तपस्या की विभिन्न विधियों का जिक्र ऊपर किया जा चुका है। ये सब तप साधु तथा साध्वियों द्वारा समाचरित होते रहे हैं। श्रावक-श्राविकाओं द्वारा इस प्रकार की तपस्या करने का कहीं उल्लेख नहीं मिलता। श्रावक-श्राविकाओं की लम्बी तपस्या का उल्लेख आगमों में कहीं मिलता ही नहीं। सिर्फ अट्ठम (तेला) तक तप करने का जिक्र अवश्य प्राप्त होता है, या अनशन करने का उल्लेख मिलता है और तपस्याओं का उल्लेख क्यों नहीं मिलता? सचमुच, यह शोध का विषय है। क्या तेले से ऊपर तपस्या किसी ने की ही नहीं ? अगर नहीं की तो क्यों नहीं की ? या तपस्या के साथ ध्यान अनिवार्य था ? अथवा ध्यान के साथ ही तपस्या होती थी? और श्रावक अधिक ध्यान न कर सकने की स्थिति में लम्बी तपस्या नहीं कर सके ? इन सब तथ्यों का शोध करने पर ही पता लग सकता है । आज तपस्या के साथ ध्यान का कोई सम्बन्ध नहीं है । और श्रावक-श्राविकाएँ भी आज तिविहार तपस्या काफी लम्बी-लम्बी करने लग गये हैं। अठाई, पखवाड़ा तो सामान्य बात है, ऊपर में मासखमण आदि की तपस्या भी प्रतिवर्ष काफी लोग कर लेते हैं। ऊपर में तिविहार तपस्या एक सौ बीस दिन तक करने वाली पंजाब की बहिन कलावती है, इसने इस तपस्या के काफी दिन युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी के सान्निध्य में बिताये थे। स्थानकवासी समाज में भी एक बहिन पिछले वर्षों में काफी लम्बी तपस्याएं करती रही है। परम्परागत तप-आजकल तप के कुछ और भी प्रकार प्रचलित हैं, जिसका उल्लेख आगमों में नहीं है। लगता है यति लोगों ने उनका क्रम प्रचलित किया है। नोकारसी, पोरसी, पुरिमड्ढ़, एकासन, आयंबिल, अभिग्रह आदि जो आगमों में अलग-अलग आए हुए हैं, उनका संयोजन विभिन्न स्तर पर करके अलग-अलग नाम से तपस्या का क्रम प्रचलित कर दिया था, वास्तव में उनका यह महत्त्वपूर्ण पवित्रतम उपक्रम था। दस पचखान-यह दस दिनों का तप विधान है, इसमें नोकारसी प्रात:कालीन (एक मुहूर्त) के त्याग से से प्रारम्भ कर चरम पचखाण सन्ध्या में एक मुहुर्त दिन से चौविहार करके सम्पन्न किया जाता है। इसमें दस दिनों में तप करने का क्रम इस प्रकार है। १. नोकारसी : सूर्योदय से एक मुहूर्त (४८ मिनट) का चारों आहार का त्याग करना होता है। नोकारसी तिविहार __ नहीं होती, वह चौविहार ही करनी पड़ती है। २. पोरसी : सूर्योदय से एक प्रहर दिन तक तिविहार या चोविहार त्याग करना । ३. पुरिमड्ढ : सूर्योदय से दो प्रहर (आधा दिन) तक तिविहार या चौविहार त्याग करना । ४. एकासन : दिन में एक बार आहार करके त्याग करना । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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