Book Title: Tap Ek Mahattvapurna Anushthan Author(s): Sumermalmuni Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf View full book textPage 1
________________ तपः एक महत्वपूर्ण अनुष्ठान मुनिश्री सुमेरमलजी 'लाडनूं' [ युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी के शिष्य ] तप का महत्त्व सभी भारतीय दर्शनों में है । कृतकर्मों को तोड़ने के लिए सभी ने तप को बहुत बड़ा साधन माना है । इसलिए यहाँ ज्ञानी से भी तपस्वी को अधिक महत्त्व मिलता आया है। ज्ञान में विवाद हो सकता है, तप में नहीं । तप निर्विवाद आत्म-उज्ज्वलता का एक महत्त्वपूर्ण अनुष्ठान है। जैन दर्शन में मोक्ष के चार महत्त्वपूर्ण साधनों में तप को एक साधन माना गया है। भगवान से पूछा गया - "तवे णं भंते! जीवे कि जणयई" तप करने से जीव को क्या लाभ प्राप्त होता है ? समाधान देते हुए बताया है- "तवे णं बोदाणं जणयई । " तप से कर्म बोदे ( जीर्ण ) हो जाते हैं, फिर उसे तोड़ने में विशेष परिश्रम करना नहीं पड़ता "तवता गद पुराण पावनं" तपस्या से मुनि पूर्वसंचित कर्मों को धुन डालता है, इसीलिए सुगति प्राप्त करने वालों को तप प्रधान बतलाया है । जिनका जीवन तप-प्रधान होगा उन्हें अपने आप सुगति (गति) प्राप्त हो जाती है । पापकर्म तप से खत्म हो जाते हैं और पुण्य कर्म का जब भारी संबंध हो जाता है, सुगति देवगति प्राप्त हो जाती है। पुण्य और पाप जब दोनों क्षय हो जाते हैं, तब सुगति (मोक्षगति) प्राप्त हो जाती है । पाप क्षय होने के बाद अकेले पुण्य का बन्धन दीर्घकालिक नहीं होता, उन्हें भी समाप्त होना पड़ता है। जैन तपस्या विधि में नाना प्रकार से तप करने का उल्लेख है । अग्लानभाव से आत्मा को तपाने की प्रक्रिया का नाम तप है। जिसमें जीवहिंसा न हो, किसी दूसरे को कष्ट न हो, उसी तप विधि को तप कहा गया है । "अनाहारस्तपः कथितम्" अनाहार को तप कहा गया है। इसमें किसी को कष्ट पहुँचने की संभावना नहीं रहती । आहार के चार प्रकार माने गये हैं- ( १ ) असन (२) पानी, (३) खादिम (४) स्वादिम । सामान्यतः तप चारों प्रकार के आहार से निवृत्त होने पर ही होता है। तीयंकर देव जितनी तपस्या करते हैं, वह सभी चढविहार होती है । तपस्या का दूसरा प्रकार तिविहार का होता है, उसमें पानी लेकर तप किया जाता है, पानी के अतिरिक्त तीनों प्रकार के आहारों में निवृत होता होता है। वर्तमान में तिविहार तपस्या अधिक प्रचलित है । आछ पीकर भी तप करने की परम्परा रही है । सिर्फ आछ के अतिरिक्त और कोई चीज काम में नहीं लेते । आछ, छाछ के उकालने के बाद कार वितर आने वाले पानी को कहा जाता है। केवल नीला नीला पानी ऊपर आ जाता है, उसे छानकर पीने वाले की तपस्या आछ के जाती है। चार महिना, छ: महिना आदि लम्बे दिनों की तपस्या आजकल आछ लेकर वर्तमान में सर्वाधिक लम्बी तपस्या तेरापंथ धर्मसंच में साध्वी श्री मुरांजी ने की है, उन्होंने तीन सौ छत्तीस दिनों की तपस्या की थी । छाछ नीचे रह जाती है, आधार पर तपस्या कही की जाती है । आछ लेकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.Page Navigation
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