Book Title: Tao Upnishad Part 05
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 7
________________ स पुस्तक को अपने हाथ में लें तो थोड़ा सम्हल जाना—या तो यह आपको नहीं छोड़ेगी या आप इसे नहीं छोड़ेंगे। ऐसा नहीं है कि इसे आपको प्रथम पृष्ठ से पढ़ना प्रारंभ करना है; आप कहीं से, किसी भी पृष्ठ से प्रारंभ कीजिए, आप पकड़े जाएंगे। ऐसी चुंबकीय है यह पुस्तक। पढ़ते जाओ-भीतर प्राण एक परम धन्यता की अनुभूति से भरते जाते हैं। लाओत्से प्राचीन हैं, लेकिन उनसे अधिक नूतन व आधुनिक व्यक्ति ढूंढना कठिन है। बल्कि ऐसा कहें कि अभी उनका समय आने को है, जब लोग लाओत्से को समझने के योग्य हो पाएंगे। ऐसा भी नहीं है कि लाओत्से का ताओ-दर्शन कोई गूढ़, कोई गंभीर रूखी-सूखी दार्शनिकता है जिसे समझना कठिन हो। नहीं, यह बिलकुल दुरूह नहीं है। यह एकदम सरल है, सूत्रात्मक और काव्यात्मक है। लेकिन सामान्यतः जैसा जीवन हम जीते हैं उसमें सब कुछ जटिल व दुरूह हो गया है। अन्यथा, ताओ को हम ऐसे समझ लेंगे जैसे कि हम इसे प्राकृतिक रूप में सदा से जानते हों, जैसे कि यह सदा से हमारे प्राणों में था ही। लाओत्से के इन सहज सूत्रों पर ओशो के अमृत प्रवचनों को पढ़ते-पढ़ते ऐसी ही अनुभूति होती है। इन सूत्रों में एक अनूठा काव्य है जिसमें अप्रदूषित ग्राम्य जीवन की सोंधी माटी की सगंध है। अगर आपको सही मायने में काव्य का रस लेना हो तो लाओत्से के ये सूत्र आपको उस रहस्यमय लोक में ले जाएंगे जहां आप केवल एक कवि के काव्य का ही नहीं, बल्कि एक ऋषि के नैसर्गिक काव्य-रस का आस्वाद लेंगे। और इसे जितनी बार पढ़ेंगे, पर्त-दर-पर्त उसके रहस्य आप आत्मसात करते जाएंगे। उदाहरण के लिए, ताओ के इस एक सूत्र को ही लें जो चरित्र का धनी है, वह शिशुवत होता है। जहरीले कीड़े उसे दंश नहीं देते, जंगली जानवर उस पर हमला नहीं करते, और शिकारी परिन्दे उस पर झपट्टा नहीं मारते।

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